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इसमें कोई दोराय नहीं है कि अपने देश पर मर मिटने वाले शहीदों पर सिर्फ़ हमें ही नहीं, बल्कि हर देश को नाज़ होता है, लेकिन उनका क्या, जो अपनी आख़िरी सांस तक देशभक्ति के जुनून से भरे रहे, जिन्होंने पूरी ज़िंदगी सिर्फ़ और सिर्फ़ देश की सेवा में समर्पित की, वह भी निस्वार्थ भाव से और बदले में कभी कुछ नहीं मांगा? क्या उन देशभक्तों का योगदान सिर्फ़ इसलिए हल्का करके आंकने की भूल की जा सकती है कि वे चिरनिद्रा में फांसी के तख़्ते पर झूलते हुए नहीं, बल्कि किसी बीमारी से लड़ते हुए या अपनी उम्र गुज़ारकर एक स्वाभाविक मौत मरे थे। अगर नहीं तो फिर क्यों कोई स्वाधीनता संग्राम का सेनानी अपने हाथ में सर्टिफिकेट थामे ये प्रमाण देता बीमारी से एड़ियां रगड़-रगड़कर मरने को मजबूर हो जाता है कि वह वही शख़्स है, जिसने इस धरती को गुलामी से आज़ादी दिलाने के लिए अपना पूरा जीवन न्यौछावर करते हुए कभी ये नहीं सोचा था कि इसी देश में उसका ज़िंदा रह जाना इतना बड़ा गुनाह बन जाएगा कि उसे अपने होने के सबूत जुटाने होंगे, कि उसे अपनी देशभक्ति एक प्रमाणपत्र के ज़रिये साबित करनी होगी। ये मौका है, महान स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त को याद करने का, जिन्होंने इसी दिल्ली में बीमारी से लड़ते हुए 20 जुलाई, 1965 को प्राण त्याग दिए थे, जिस दिल्ली में कभी उन्होंने शहीदे-आज़म भगत सिंह के साथ मिलकर, बहरे अंग्रेज़ों के कानों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए काउंसिल हाउस की सैंट्रल असेंबली में बम फेंका था।