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#SantPravar 👉 Wattsapp Group https://chat.whatsapp.com/IB3L3OJM9PF... 👉YouTube Channel / yuvashaktiteam 👉Facebook page / vihangamyog-yuva_shakti_team Read Full Article🧘 https://www.ouryog.com/vihangam-yoga-... https://www.vihangamyoga.org/ विहंगम योग क्या है? Vihangam Yoga विहंगम योग का सम्पूर्ण सिद्धान्त सरल एवं स्पष्ट शब्दों में। स्वामी सदाफल देव जी महाराज ने भी अनेक प्रचलित योगों की चर्चा करते हुए लिखा है- Q सम्प्रदाय मत भेद से, बन गये योग अनेक। योग सनातन एक है, अन्तर गुरु गम टेक।। सहज योग एक योग है, सब योगन शिरताज। प्रकृति असंग उड़ाव है, पिपिल कपिल गति त्याज ।। इस तरह सनातन योग एक ही है और वह है चेतन-चेतन का योग। इसके अतिरिक्त जितने योग हैं वे योग के किसी अंश-विशेष का ही प्रतिपादन करते हैं। यह योग न तो वाणी से होता है, न आसन से, न प्राणायाम से, न मुद्रा से , न बन्ध से, न अनहद तान से, न झिलमिल ज्योति से, न षट् क्रिया से, न चक्र भेदन से, न शून्य साधन से और न मन के मंडल में बैठ कर ध्यान करने से। वास्तविक योग तो प्रकृति से परे है जिसे स्वामी जी ने कहा है- प्रकृति पार सत्पथ चले, पुरुष अक्षरातीत। अन्तर अनुभव गमन है, चेतन चेतन हीत।। मीन विहंगम मार्ग है, अनुभव गम पर देव। देव सदाफल गुरु कृपा, सुरति निरति कर सेव।। इस विहंगम योग की साधना वास्तव में एक पूर्ण साधना है। इसमें भक्ति-मार्ग, ज्ञान मार्ग या कर्म मार्ग का कोई विभेद नहीं है। विहंगम योग में प्रकृति पार होने पर आत्मा की शुद्ध चेतना द्वारा जो परमात्मा का भजन होता है वही भक्ति है, वहाँ पर परमात्मा का जो अनुभव होता है वही ज्ञान है और चेतन भूमि में स्थित होकर उस परम पुरुष के आधार पर सुरति को ठहराकर जो भी कार्य होते हैं वही कर्म योग है। परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव, ऐश्वर्य एवं शक्ति आदि का वर्णन करना वाणी की भक्ति है, उनके इन गुणों को सुनना, श्रोता की भक्ति है, उनके इन गुणों को सृष्टि के अनन्तः पदार्थों में देखना नेत्र की भक्ति है। इसी तरह मन से केवल ब्रह्म का ही मनन करना मन की भक्ति है और बुद्धि से उसी की विवेचना करना बुद्धि की भक्ति है। मगर परमात्मा के आधार पर आत्मा को प्रकृति से असंग करके ठहराना आत्मा की भक्ति है। इसी तरह विहंगम योग में मात्र विषयों से इन्द्रियों को हटाने की क्रिया धारणा नहीं कहलाती है, बल्कि गुरु प्रदेश में चित्त वृत्तियों को बाँध लेना ही धारणा है। इसी तरह परमेश्वर के स्वरूप को ज्ञान दृष्टि से चन्द्र चकोरवत् देखने को ही विहंगम योग में ध्यान कहते हैं और जिस तरह लोहा अग्नि के संयोग से अग्नि स्वरूप हो जाता है उसी तरह आत्मा का परमात्मा स्वरूप होना ही विहंगम योग की समाधि है। विहंगम योग समाधि में आत्मा का शुद्ध स्वरूप भूलता नहीं, बल्कि परमात्मा के गुण-स्वभाव आदि आत्मा में आने लगते हैं और परमात्मा के प्रकाश से ही आत्मा की सारी शक्तियाँ और सारे ज्ञान प्रकाशित हो जाते हैं। विहंगम योग की धारणा, ध्यान और समाधि का स्वामी जी ने स्वर्वेद में स्पष्ट विवेचन किया है। धारणा के सम्बन्ध में स्वमी जी ने लिखा है- मन व पवन सम कीजिए, गुरु प्रदेश में बाँध। अज गुरु की यह धारणा, तब सुमिरन शुभ साध।। प्रकट रूप नहीं तीन है, मन अरु पवन निरोध। योगाभ्यास है धारणा, तन मन बन्धन सोध।। अर्थात् मन और पवन को सम कर सुरति को गुरु प्रदेश में स्थिर करना नित्य अनादि सदगुरु के विहंगम योग की धारणा है। इसी तरह जब तक ध्याता, ध्यान और ध्येय तीन स्वरूप प्रत्यक्ष नहीं होते, तब तक सारे देह संघात को शोध कर मन और पवन को निरोध करने का अभ्यास ‘धारणा’ कहलाता है। इसी तरह ध्यान के सम्बन्ध में भी स्वामी जी ने स्पष्ट कहा है- शब्द सुरति सम तार है, चन्द्र चकोर स्वभाव। शिखा अखण्ड अकम्प है, ध्यान स्वलक्ष्य प्रभाव।। एक तानता ध्यान है, त्राटक शब्द स्वरूप। तन मन की कछु सुधि नहीं, पाया पुरुष अनूप।। अर्थात् जिस प्रकार चकोर चन्द्रमा को देखता है, उसी प्रकार शब्द में एक समान सुरति लगाकर अपने लक्ष्य की अखण्ड कम्पहीन ज्योति को देखना ध्यान है। शब्द स्वरूप परब्रह्म में एकतार त्राटक लगाना ध्यान है। ध्यान में तन-मन की कुछ सुधि नहीं रहती। ध्यान द्वारा अनुपम पुरुष की प्राप्ति होती है। ध्यान साधन है और ध्येय लक्ष्य है। अन्त में विहंगम योग की समाधि के सम्बन्ध में स्वामी जी लिखते हैं- ध्यान दशा तन्मय भया, सच्चिदानन्द स्वरूप। यह तो अन्त समाधि है, ज्ञान न आतम रूप।। आपन रूप बनाइया, लोहा अगिन स्वरूप। सत्ता दोनों अलग है, हंस पुरुष कर रूप।। ध्येय स्वरूप ध्याता भया, ध्यान सो तत्व समाय। परमानन्द समाधि है, सहज योग गति पाय।। अर्थात् ध्यान करते-करते जब ध्याता ध्येय के स्वरूप हो जाता है, तब जीव ब्रह्म के साधर्म्य को प्राप्त कर सच्चिदानन्द स्वरूप हो जाता है। ध्यान की अन्तिम अवस्था समाधि है जिसमें जीव लौह-अग्निवत् ब्रह्म के स्वरूप को प्राप्त करता है। यह समाधि सहज योग विहंगम योग के मार्ग द्वारा प्राप्त होती है। विहंगम योग की धारणा ध्यान और समाधि की अवस्था को मात्र एक दोहे में स्वामी जी ने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है- मन बाँधे सो धारणा, शब्दाकार सो ध्यान। शब्द स्वरूप समाधि है, परम तत्व विज्ञान।। अर्थात् गुरु प्रदेश में मन को रोकना धारणा, शब्द में एक रूप तन्मय हो जाना ध्यान तथा शब्द स्वरूप हो जाना समाधि है। यही ब्रह्म विद्या का पूर्ण विज्ञान है। विहंगम योग में जप आदि को भी स्थूल रूप में नहीं लिया गया है। जप तो वहाँ है, जहाँ सहज ध्वनि हो रही है। उसे ही सूक्ष्म रूप से विहंगम योगी पकड़ता है।