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जीवन के मूलभूत प्रश्नों का उत्तर देकर मानवमात्र का चिरंतन मार्गदर्शन करने वाली भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से प्राप्त मॉं गीता को कोटि कोटि नमन। 🙏🏻 🌸 • गीता जयंती की हार्दिक बधाई • 🌸 "श्रीमद्भगवतगीता जी की 5160 वीं जयंती (मोक्षदा एकादशी)" के शुभ अवसर पर श्री मुरली मनोहर धोरा पर "सामूहिक गीता का पाठ" किया गया तत्पश्चात गीता क्लास के विद्यार्थियों द्वारा "गीता जी पर विभिन्न प्रस्तुतियां" दी गयीं तत्पश्चात संतो के प्रवचन हुए और अंत में 'गीता जी की आरती' के साथ (सप्त दिवसीय) "गीता जयंती महोत्सव" की पूर्णावति हुईं। ★ "गीता" ★ विश्व साहित्यमें श्रीमद्भगवद्गीताका अद्वितीय स्थान है। यह साक्षात् भगवान के श्रीमुखसे निःसृत परम रहस्यमयी दिव्य वाणी है। इसमें स्वयं भगवान ने अर्जुनको निमित्त बनाकर मनुष्यमात्रके कल्याण के लिये उपदेश दिया है। इस छोटे से ग्रन्थ में भगवान ने अपने हृदयके बहुत ही विलक्षण भाव भर दिये हैं, जिनका आजतक कोई भी पार नहीं पा सका है और न ही पा सकता है। गीता जी भगवान्का श्वास है, हृदय है और भगवान्की वाङ्मयी मूर्ति है। गीता का ज्ञान हमें धैर्य, दुख, लोभ व अज्ञानता से बाहर निकालने की प्रेरणा देता है। गीता मात्र एक ग्रंथ नहीं है, बल्कि वह अपने आप में एक संपूर्ण जीवन है। इसमें पुरुषार्थ व कर्तव्य के पालन की सीख है। गीता जी का सन्देश सम्पूर्ण विश्व के लिये है। किसी भी देश, जाति या समाज में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसके लिये गीतामें कोई लाभप्रद सन्देश न हो। सकल वेद-शास्त्र पारङ्गत पण्डित से लेकर निपट-निरक्षर मूर्ख तक, चक्रवर्ती सम्राट से लेकर घास-फूस की झोपड़ी में रहकर दिन काटने वाले अकिञ्चन तक, तथा इस मायामय संसार से पूर्णतः विरक्त रहने वाले ज्ञानी पुरूषों से लेकर इसीमें आमूल-चूल अनुरक्त कामुकों तक, बालक-वृद्ध, स्त्री-पुरूष सभी के लिये गीतामें अमूल्य सन्देश भरे पड़े हैं। केवल श्रद्धालु हिन्दुओं के लिये ही नहीं—विश्व के समस्त धर्म और मत-मन्तरानुयायियों के लिये गीता की अमृतमयी वाणी दिव्य सन्देशसे भरी पड़ी है। श्रद्धालु भक्त ही क्यों, मानवमात्रके लिये चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक गीता अनुपम लाभपूर्ण सन्देशसे भरी है। इसे महाभारत का अमृत के रूप में भी जानते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसका पाठ करने वाला कितना भी मलिन क्यों न हो लेकिन उसे ईश्वर की कृपा से मोक्ष की प्राप्त होती है। परम शांति की प्राप्ति के इच्छुक सभी साधक इस अनुपम और दिव्य ग्रन्थ- रत्न को अवश्य ही मनोयोगपूर्वक पढें, समझें और यथासाध्य आचरणमें लानेका प्रयत्न करें । निष्काम कर्म के आचार्य, पहले करनी करके पुनः कथनी कहने वाले, सादगी व सरलता के प्रतिमूर्ति, गीताके प्रचार के लिये गीताप्रेस की स्थापना करने वाले तथा गीता की साक्षात् प्रतिमूर्ति परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका “सेठजी” गीताजी के विषयमें अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि गीता ज्ञान का अथाह समुद्र है, इसके अन्दर ज्ञान का अनन्त भण्डार भरा पड़ा है। इसका तत्त्व समझने में बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् और तत्त्वालोचक महात्माओं की वाणी भी कुण्ठित हो जाती है। क्योंकि इसका पूर्ण रहस्य भगवान् श्रीकृष्ण ही जानते हैं। उनके बाद कहीं इसके सङ्कलनकर्ता व्यासजी और श्रोता अर्जुनका नम्बर आता है। ऐसी अगाध रहस्यमयी गीताका आशय और महत्त्व समझना मेरे-जैसे मनुष्य के लिये ठीक वैसा ही है, जैसा एक साधारण पक्षी का अनन्त आकाशका पता लगानेके लिये प्रयत्न करना। गीता अनन्त भावों का अथाह समुद्र है। रत्नाकर में गहरा गोता लगाने पर जैसे रत्नों की प्राप्ति होती है वैसे ही इस गीता-सागर में गहरी डुबकी लगाने से जिज्ञासुओं को नित्य-नूतन विलक्षण भाव रत्न राशि की उपलब्धि होती है। परन्तु आकाश में गरूड भी उड़ते हैं तथा मच्छर भी। इसी के अनुसार सभी अपने-अपने भावके अनुसार कुछ अनुभव करते ही हैं। अतएव विचार करने पर प्रतीत होता है कि गीता का मुख्य तात्पर्य अनादिकाल से अज्ञानवश संसार-समुद्रमें पड़े हुए जीवको परमात्मा की प्राप्ति करवा देने में है और उसके लिये गीता में ऐसे उपाय बतलाये गयेे हैं, जिससे मनुष्य अपने सांसारिक कर्तव्य कर्मों का भली-भाँति आचरण करता हुआ ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। व्यवहार में परमार्थ प्रयोग की यह अद्भुत कला गीताजी में बतलायी गयी है। तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त तथा भगवत्प्रेमी महापुरुष परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज इस युगके एक महान् संत हुए हैं। कम-से-कम समयमें तथा सुगम-से-सुगम उपायसे मनुष्यमात्रका कैसे कल्याण हो-यही उनका एकमात्र लक्ष्य था और इसीकी खोजमें वे जीवनभर लगे रहे। इस विषयमें उन्होंने नये-नये अनेक क्रान्तिकारी विलक्षण उपायोंकी खोज की और उन्हें अपने प्रवचनों एवं लेखोंके द्वारा जन-जनतक पहुँचाया। उनका सम्पूर्ण जीवन श्रीमद्भगवद्गीताके अध्ययन-मननमें ही बीता। गीता उनके रोम-रोममें बसी हुई थी। वे साक्षात् गीताकी मूर्ति थे। सम्पूर्ण मनुष्योंके कल्याणार्थ उन्होंने गीता पर जो “साधक-संजीवनी” टीका लिखी है, वह अभूतपूर्व तथा अद्वितीय है। उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता को विश्व का अद्वितीय ग्रन्थ कहा है। उन्होंने गीताजी की टीका “गीता प्रबोधनी” में लिखा है कि गीताजी पर अब तक न जाने कितनी टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं, लिखी जा रही हैं और भविष्य में लिखी जायँगी. पर इसके गूढ भावों का अन्त न आया है, न आयेगा। कारण कि यह अनन्त भगवान् के मुख से निकली हुई दिव्य वाणी (परम वचन) है। इस दिव्य वाणी पर जो कुछ भी कहता या लिखता है, वह वास्तव में अपनी बुद्धि का ही परिचय देता है। गीता के भावोंको कोई मनुष्य अपनी इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से नहीं पकड़ सकता। हाँ, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने आपको भगवान् के समर्पित करके अपना कल्याण कर सकता है। व्यवहार करते हुये परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाओ, यह विशेष बात कहती हैं भगवद्गीता।