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हिंदी सिनेमा का विकास दुनिया की सबसे ज्यादा फिल्में बनानेवाली इंडस्ट्री भारतीय सिनेमा है। हिंदी सिनेमा का प्रारम्भिक चरण: निर्देशक, लेखक और कला निर्देशक दादासाहेब फाल्के ने भारत की पहली लंबी मूक फिल्म (ध्वनिरहित) ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाई थी, जो सन् 1913 में प्रदर्शित हुई। 1920 के दशक में रामायण-महाभारत तथा पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित फिल्मों का बोलबाला रहा। इनमें से अधिकतर धार्मिक फिल्मों का निर्माण दादा साहब फालके द्वारा किया गया था। अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्मित ध्वनि सहित पहली ‘आलम आरा’ फिल्म थी, जो कि सन् 1931 में प्रदर्शित हुई। आलम आरा के प्रदर्शन ने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत की। 1932 में ‘अयोध्या का राजा’ प्रभात कंपनी द्वारा निर्मित ध्वनि फिल्म थी। इस दौर के फ़िल्मकारों ने अंग्रेज़ी हुकूमत की परवाह किए बगैर निर्भीक होकर आज़ादी की प्रेरणा देने वाली फ़िल्में बनाईं। उस दौर की अनेक फ़िल्मों के गीतों ने देश को आज़ादी दिलाने में प्रेरक तत्व का कार्य किया। द्वितीय चरण: 1947 के आसपास फिल्म उद्योग में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए। पाँचवाँ और छठा दशक आज़ादी प्राप्त होने की मस्ती से सराबोर था, जिसमें प्रेम, रोमांस और जुदाई का दर्द प्रधान थे। इस दौर को ‘ सिनेमा का स्वर्णयुग’ कह सकते हैं। हिन्दी सिनेमा ने एक से बढ़कर एक सदाबहार गीत दिए। यही वह समय था, जब भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्वीकृति मिलनी शुरू हुई और राजकपूर तथा सत्यजीत रॉय का जादू समूचे विश्व पर छा गया । सत्यजीत रे, मृणाल सेन और बिमल रॉय द्वारा बनाई फिल्में निम्नवर्ग के दुखों पर केंद्रित थी। ये फिल्में वेश्यावृत्ति, दहेज, भ्रष्टाचार जैसे विषयों पर आधारित थी जो हमारे समाज में प्रचलित थे। दिलीप कुमार, मीना कुमारी, मधुबाला, नर्गिस, गुरु दत्त, नूतन, देव आनंद और वाहिदा रहमान जैसे कलाकारों का उदय इसी समय हुआ। संगीत भारतीय फिल्मों का एक अभिन्न अंग है। इन गीतों ने अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों की तुलना में भारतीय फिल्मों को एक विशिष्ट रूप दिया है तृतीय चरण: बॉलीवुड में मसाला फिल्मों का आगमन 1970 के दशक में हुआ। राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, संजीव कुमार, हेमा मालिनी जैसे और कई अन्य अभिनेताओं की आभा ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध और मोहित किया। १९७३ में प्रदर्शित राजकपूर की बॉबी फिल्म ने युवा प्रेम का एक नया अहसास जगाया यह फिल्म एक मील का पत्थर साबित हुई। रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘शोले’ ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। सफल निदेशक, मनमोहन देसाई मसाला फिल्मों के जनक के रूप में सामने आये । सातवें दशक से भारतीय सिनेमा ने यथार्थ के कठोर धरातल पर कदम रखने शुरू कर दिए। इसकी शुरूआत मदर इण्डिया से हो चुकी थी, लेकिन इसे भारतीय सिनेमा की प्रधान प्रवृत्ति बनाया प्रकाश मेहरा की अमिताभ बच्चन अभिनीत फ़िल्म ‘ज़ंजीर’ ने। इसके बाद के दो दशक मार-धाड़ और खूनखराबे से भरपूर रहे। यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित और सलीम-जावेद की लिखी हुई दीवार, एक आपराधिक ड्रामा फिल्म थी। इस फिल्म को डैनी बॉयल ने भारतीय सिनेमा की असली पहचान बताया है। 1980 और 1990 के दशक मेंएक दूजे के लिए (1981), मिस्टर इंडिया (1987), क़यामत से क़यामत तक (1988), चांदनी (1989), मैंने प्यार किया (1989), बाज़ीगर (1993), हम आपके हैं कौन..! (1994), दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995) कुछ कुछ होता है (1998) जैसी फिल्मों ने भरपूर लोकप्रियता हासिल की। कई नए कलाकार जैसे शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित, श्रीदेवी, अक्षय कुमार, आमिर खान और सलमान खान लोकप्रिय हुए। अभिनेताओं की इस नई शैली ने अपने प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल किया, जिसने आगे बढ़कर भारतीय फिल्म उद्योग को उन्नत के शिखर पर पहुँचा दिया। वर्ष 2008 में, भारतीय फिल्म उद्योग के लिए भारतीय फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर में सर्वश्रेष्ठ संगीत के लिए ए. आर. रहमान को दो अकादमी पुरस्कार मिले। भारतीय सिनेमा अब भारत तक सीमित नहीं है और अब इसकी सराहना अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों द्वारा की जा रही है। बॉलीवुड बॉक्स ऑफिस संग्रह में विदेशी बाजार का योगदान काफी उल्लेखनीय है। इक्कीसवीं शताब्दी के आने तक भारतीय दर्शक के टेस्ट में भारी बदलाव आ चुका था। इस दौर में पुराने निर्देशक कहीं खो गए और नए तथा ऊर्जावान निर्देशकों की फौज ने उनका स्थान ले लिया। ‘तारे जमीं पर’, , ‘मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस.’, ‘ब्लैक’, लगान, चक दे इण्डिया, ए वेडनेसडे, ‘थ्री ईडियट्स’, आदि फ़िल्मों ने सिनेजगत को नए विचार दिए हैं। आज दक्षिण की लोकप्रिय फिल्मों का हिंदी रूपांतरण किया जा रहा है,तेलुगु की ‘शिवा’ फ़िल्म से शुरू हुई यह परंपरा आज अनेक हिन्दी फ़िल्मों में अपनाई जा रही है। २०१५ में दक्षिण की भाषाओँ के साथ तमिल में बनी निर्देशक राजामौली की बाहुबली ने सफलता के अनेक रिकॉर्ड तोड़ दिए। २०२१ के अंत में प्रदर्शित तेलुगु फिल्म 'पुष्पा: द राइज' दक्षिण की अन्य भाषाओँ के साथ हिंदी में भी प्रदर्शित हुई जिसमें नायक अल्लू अर्जुन का एक्शन तथा फिल्म के संगीत को दर्शकों ने बहुत पसंद किया और बॉक्स ऑफिस पर भी यह फिल्म हिट रही। कोरोना प्रभावित मानसिकता से बाहर निकलकर दर्शकों में उत्साह भरने का कार्य इस फिल्म ने किया। पिछले कुछ वर्षों से हिंदी में पुरानी लोकप्रिय हिंदी फिल्मों का रीमेक किया जा रहा है साथ ही खिलाडी या शूर वीरों पर बायोपिक बन रहें हैं, जैसे दंगल, नीरजा, मिल्खा सिंग, शेरशाह आदि। निर्माता, निर्देशक, कलाकार और तकनीकें बदलती रही और उसके साथ भारतीय सिनेमा भी बदलता गया। आज उसकी करोड़ों की छलांगे देखकर आंखें चौंधियाती है। धर्मिक और पौराणिक कथाओं से शुरुआत करनेवाला भारतीय सिनेमा बाजारवादी सिनेमा तक पहुंचते-पहुंचते कई करवटें ले चुका है। भारतीय सिनेमा अपने ही धून में विकसित होता रहेगा। वर्तमान युग में हिंदी तथा अन्य प्रादेशिक भाषाओं की फिल्में दुनिया की किसी भी उत्कृष्ट फिल्म को टक्कर देने की क्षमता रखती है।