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निर्मला (उपन्यास) : प्रेमचंद उपन्यास का सारांश उदयभानु लाल बनारस के अमीर और प्रतिभावान्-वकील थे | परिवार में उनकी पत्नी कल्याणी, दो लड़कियां निर्मला और कृष्णा तथा दो लड़के चन्द्रभानु और सूर्यभानु थे| उदयभानु ने अपनी बड़ी पुत्री निर्मला की शादी लखनऊ निवासी बाबू भालचन्द्र सिन्हा के बड़े पुत्र भुवनमोहन के साथ निश्चित की| भालचन्द्र सिन्हा ने स्वयं कह दिया था कि मुझे दहेज की परवाह नहीं, किंतु बारातियों का आदर-सत्कार अच्छी तरह से होना चाहिये| अत: वकील साहब शादी के लिए बहुत अधिक खर्च करने को तैयार हो जाते हैं, परन्तु उनकी व्यवहार-कुशल पत्नी कल्याणी उनकी इस बात का विरोध करती है| इस पर पति-पत्नी में झगड़ा हो जाता है और वकील साहब सुनसान रात्रि में घर छोड़ चल देते हैं| घर से निकलते ही थोड़ी दूर पर, उनका एक पुराना शत्रु मतई- जिसे डाके के मुकदमे में उदयभानु लाल ने सरकारी वकील की हैसियत से तीन साल की सजा दिलायी थी-मिलता है और अपना बैर चुकाने के लिये उन्हें मौत के घाट उतार देता है| उदयभानु की मृत्यु से समधी भालचन्द्र सिन्हा बेटे का विवाह निर्मला के साथ करने से मुकर जाते हैं| अतः कल्याणी कुछ बेबसी में निर्मला की शादी तीन लड़कों के पिता- विधुर दुहाजू मुंशी तोताराम के साथ कर देती है| तोताराम पैंतीस वर्षीय वकील थे | वे अत्यधिक परिश्रमी थे अत: उनके सिर के बाल पक गये थे| श्याम-स्थूल देह में तोंद निकली हुई थी | उनके तीन लड़के-मंसाराम, जियाराम और सियाराम थे, जिनकी आयु क्रमश: सोलह, बारह और सात साल की थी| इनके अतिरिक्त उनकी विधवा बहन रुक्मिणी भी थी | शादी के पश्चात निर्मला पति के घर आती है| तोताराम पत्नी को खुश करने के लिये नित्य नये-नये उपहार लाते हैं, परन्तु निर्मला उनसे दूर ही रहती शायद इसलिये कि पिता की अवस्था का एक आदमी उसका पति था, तोताराम निर्मला को प्रसन्न रखने के लिये नित्य नए-नए स्वॉंग रचते हैं्| अपनी वीरता के झूठे प्रसंग कह सुनाते हैं| ससुराल में गहने, कपड़े और धन-संपत्ति निर्मला को रूप वृद्धि और संतोष प्रदान करते हैं, परन्तु उसका मानसिक असंतोष बहुत बढ़ जाता है | निर्मला अपना मन अन्य बातों-कार्यों में लगा लेती है| वह बच्चों की सेवा-सुश्रुषा में लग जाती है | बड़े पुत्र मंसाराम से अंग्रेजी भी पढ़ती है, किंतु पति को शंका उत्पन्न होती है और वे किसी बहाने मंसाराम को छात्रालय में भेजने का निश्चय कर लेते हैं | तोताराम के बहुत अधिक तंग करने पर मंसाराम घर छोड़कर छात्रालय में रहने लगता है, निर्मला उसे रोकने की कोशिश करती है, परन्तु वह असफल होती है | तोताराम के संशय को समझते ही निर्मला पति की उपस्थिति में, मंसाराम के प्रति क्रूरता का अभिनय करती है| परन्तु किशोर हृदय मंसाराम इस अभिनय को सत्य समझ लेता है | इसी कारण छात्रालय में वह चिंतनशील बन जाता है, दुर्बल और बीमार हो जाता है| अनेक उपाय करने पर भी मंसाराम अच्छा नहीं होता| अंत में उसे विमाता- निर्मला के अभिनय की वास्तविकता का रहस्य विदित हो जाता है | मंसाराम की अत्यन्त बुरी दशा के समाचार सुनकर निर्मला अस्पताल पहुँच जाती है | उसे देखते ही निर्बल मंसाराम उठ खड़ा होता है, अपनी विमाता के चरणों में गिरकर उससे क्षमा-याचना करता है और उसे निष्कलंक सिद्ध करता है | अब मुंशी तोताराम का वहम नष्ट होता है वे निर्मला के शुद्ध स्नेह का महत्त्व समझते हैं और उससे अन्याय के लिये क्षमा मॉंगते हैं्| परन्तु अब तो बहुत विलंब हो चुका था | देखते ही देखते मंसाराम इस संसार से हमेशा के लिये विदा ले लेता है | तोताराम पुत्र-वियोग से उदास रहते हैं| अब वे कचहरी का काम भी ठीक तरह से नहीं कर पाते| परिणामतः आमदनी कम हो जाती है| उन्हें रुपये कर्ज लेने पड़ते हैं| जब वे कर्ज अदा नहीं कर पाते तो साहूकार उनका मकान नीलाम करवा लेता है| इसी बीच निर्मला कन्या आशा को जन्म देती है, जिसमें तोताराम अपने खोये हुए पुत्र मंसाराम को पाते हैं| परन्तु क्या तिनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहुँच सकता है ? मुंशी तोताराम की स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है | उनका मंझला पुत्र जियाराम बुरी संगति में फँसकर उद्दण्ड हो जाता है|अपने पिता को भी ताने सुनाता है | एक रात को वह निर्मला के कमरे में चुपचाप घुसकर, उसके गहनों का संदूक उठाकर भाग जाता है | निर्मला उसे देख भी लेती है परन्तु मुंशीजी को कुछ नहीं बताती | चोरी की बात सुनकर मुंशी तोताराम पुलिस में शिकायत कर देते हैं| पुलिस जियाराम को ही चोर बताती है| पर निर्मला घर की इज्जत मिट्टी में मिलाना नहीं चाहती थी| अत: पुलिस को थोड़ी-बहुत रिश्वत देकर मामला शांत करने की कोशिश करती है | परन्तु जियाराम डर के मारे आत्महत्या कर लेता है| जियाराम की आत्महत्या से तोताराम के दिल पर गहरी चोट पहुँचती है| निर्मला भी बिल्कुल हदयहीन हो जाती है | पुत्र शोक में वकील साहब का किसी भी काम में दिल नहीं लगता | अत: निर्मला पैसे बचाने के हेतु अबोध बालक सियाराम से बाजार से सौदा खरीद मँगवाती है | बार-बार के बाजार के चक्कर से तथा नित्य ही विमाता से ताड़ना पाकर सियाराम तंग आ जाता है| इतने में एक बार बनिये की दुकान पर एक साधु से उसकी भेंट हो जाती है| मातृविहीन सियाराम पर साधु की बात का गहरा असर पड़ता है| परिणामतः एक दिन वह भी घर छोड़कर साधु-महात्मा के साथ भाग जाता है | तलाश करने पर भी सियाराम नहीं मिलता तो तोताराम स्वयं पुत्र की खोज में निकल पड़ते हैं | इस प्रकार लगातार संकट-बाधाएँ उपस्थित होने पर निर्मला थक जाती है, व्याकुल- चिंतातुर रहती है और बीमार हो जाती है | अपना अंत निकट देखकर छोटी बच्ची आशा को अपनी ननद रुक्मिणी के हाथों सौंपकर वह क्रूर समाज से सदैव के लिये विदा ले लेती है | मुहल्ले के लोग एकत्रित होते हैं | निर्मला की मृतदेह बाहर निकाली जाती है| लोग चिंतामग्न हैं कि लाश को अग्नि-दाह कौन देगा ? इतने में तोताराम वहॉं उपस्थित हो जाते है | यहाँ उपन्यास का अंत होता है |