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महाकवि श्री जयदेव महाप्रभु विरचित - "श्रीगीतगोविंदम्" जयदेव जी द्वारा रचित "श्री गीतगोविन्द" काव्य के सम्पूर्ण अंगों का, नवो रसो का, सरसश्रृंगार का रत्नाकर समुद्र ही है.गीत गोविंद कि अष्ट पदियाँ जो कोई अभ्यास करता है उसकी बुद्धि को बढती है.जो सप्रेम गान करता है तो श्री राधा वल्लभ जी वहाँ सुनने के लिए प्रसन्न होकर प्रकट या गुप्त रूप से अवश्य ही आते है। धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली ॥ १॥ नाम समेतं कृतसंकेतं वादयते मृदुवेणुम् । बहु मनुते ननु ते तनुसंगतपवनचलितमपि रेणुम् ॥ २॥ पतति पतत्रे विचलति पत्रे शङ्कितभवदुपयानम् । रचयति शयनं सचकितनयनं पश्यति तव पन्थानम् ॥३॥ मुखरमधीरं त्यज मञ्जीरं रिपुमिव केलिसुलोलम् । चल सखि कुञ्जं सतिमिरपुञ्जं शीलय नीलनिचोलम् ॥ ४॥ उरसि मुरारेरुपहितहारे घन इव तरलबलाके । तडिदिव पीते रतिविपरीते राजसि सुकृतविपाके ॥ ५॥ विगलितवसनं परिहृतरसनं घटय जघनमपिधानम् । किसलयशयने पङ्कजनयने निधिमिव हर्षनिदानम् ॥ ६॥ हरिरभिमानी रजनिरिदानीमियमपि याति विरामम् । कुरु मम वचनं सत्वररचनं पूरय मधुरिपुकामम् ॥ ७॥ श्रीजयदेवे कृतहरिसेवे भणति परमरमणीयम् । प्रमुदितहृदयं हरिमतिसदयं नमत सुकृतकमनीयम् ॥ ८॥