У нас вы можете посмотреть бесплатно "बारह भावना - कहा गए वे चक्री" "Barah Bhawna"- Kaha Gaye Chakri" или скачать в максимальном доступном качестве, видео которое было загружено на ютуб. Для загрузки выберите вариант из формы ниже:
Если кнопки скачивания не
загрузились
НАЖМИТЕ ЗДЕСЬ или обновите страницу
Если возникают проблемы со скачиванием видео, пожалуйста напишите в поддержку по адресу внизу
страницы.
Спасибо за использование сервиса ClipSaver.ru
बारह भावना वंदूँ श्री अरिहंतपद, वीतराग विज्ञान | वरणूँ बारह भावना, जग-जीवन-हित जान ||१|| (विष्णुपद छंद) कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरतखंड सारा | कहाँ गये वह राम-रु-लक्ष्मण, जिन रावण मारा || कहाँ कृष्ण-रुक्मिणि-सतभामा, अरु संपति सगरी | कहाँ गये वह रंगमहल अरु, सुवरन की नगरी ||२|| नहीं रहे वह लोभी कौरव, जूझ मरे रन में | गये राज तज पांडव वन को, अगनि लगी तन में || मोह-नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को | हो दयाल उपदेश करें गुरु, बारह-भावन को ||३|| १. अनित्य भावना सूरज-चाँद छिपे-निकले, ऋतु फिर-फिर कर आवे | प्यारी आयु ऐसी बीते, पता नहीं पावे || पर्वत-पतित-नदी-सरिता-जल, बहकर नहिं डटता | स्वांस चलत यों घटे, काठ ज्यों आरे-सों कटता ||४|| ओस-बूँद ज्यों गले धूप में, वा अंजुलि-पानी | छिन-छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी || इंद्रजाल आकाश-नगर-सम, जग-संपत्ति सारी | अथिररूप संसार विचारो, सब नर अरु नारी ||५|| २. अशरण भावना काल-सिंह ने मृग-चेतन को, घेरा भव-वन में | नहीं बचावन-हारा कोई, यों समझो मन में || मंत्र-यंत्र-सेना-धन-संपत्ति, राज-पाट छूटे | वश नहिं चलता काल-लुटेरा, काय-नगरि लूटे ||६|| चक्ररत्न हलधर-सा भाई, काम नहीं आया | एक तीर के लगत कृष्ण की, विनश गई काया || देव-धर्म-गुरु शरण जगत् में, और नहीं कोई | भ्रम से फिरे भटकता चेतन, यों ही उमर खोई ||७|| ३. संसार भावना जनम-मरण अरु जरा-रोग से, सदा दु:खी रहता | द्रव्य-क्षेत्र-अरु-काल-भाव-भव, परिवर्तन सहता || छेदन-भेदन नरक-पशुगति, वध-बंधन सहता | राग-उदय से दु:ख सुरगति में, कहाँ सुखी रहता ||८|| भोगि पुण्यफल हो इकइंद्री, क्या इसमें लाली | कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली || मानुष-जन्म अनेक विपतिमय, कहीं न सुख देखा | पंचमगति सुख मिले, शुभाशुभ को मेटो लेखा ||९|| ४. एकत्व भावना जन्मे-मरे अकेला चेतन, सुख-दु:ख का भोगी | और किसी का क्या इक दिन यह, देह जुदी होगी || कमला चलत न पैंड, जाय मरघट तक परिवारा | अपने-अपने सुख को रोवे, पिता-पुत्र-दारा ||१०|| ज्यों मेले में पंथीजन मिल, नेह फिरें धरते | ज्यों तरुवर पे रैनबसेरा, पंछी आ करते || कोस कोई दो कोस कोई उड़, फिर थक-थक हारे | जाय अकेला हंस संग में, कोई न पर मारे ||११|| ५. अन्यत्व भावना मोह-रूप मृग-तृष्णा जग में, मिथ्या-जल चमके | मृग-चेतन नित भ्रम में उठ-उठ, दौड़े थक-थक के || जल नहिं पावे प्राण गमावे, भटक-भटक मरता | वस्तु-पराई माने अपनी, भेद नहीं करता ||१२|| तू चेतन अरु देह-अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी | मिले अनादि यतन तें बिछुडे़, ज्यों पय अरु पानी || रूप तुम्हारा सब सों न्यारा, भेदज्ञान करना | जौलों पौरुष थके न तौलों, उद्यम सों चरना ||१३|| ६. अशुचि भावना तू नित पोखे यह सूखे ज्यों, धोवे त्यों मैली | निश-दिन करे उपाय देह का, रोग-दशा फैली || मात-पिता-रज-वीरज मिलकर, बनी देह तेरी | मांस-हाड़-नस-लहू-राध की, प्रगट-व्याधि घेरी ||१४|| काना-पौंडा पड़ा हाथ यह, चूसे तो रोवे | फले अनंत जु धर्मध्यान की, भूमि-विषै बोवे || केसर-चंदन-पुष्प सुगन्धित-वस्तु देख सारी | देह-परस तें होय अपावन, निशदिन मल जारी ||१५|| ७. आस्रव भावना ज्यों सर-जल आवत मोरी, त्यों आस्रव कर्मन को | दर्वित जीव-प्रदेश गहे जब पुदगल-भरमन को || भावित आस्रवभाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को | पाप-पुण्य के दोनों करता, कारण-बंधन को ||१६|| पन-मिथ्यात योग-पंद्रह, द्वादश-अविरत जानो | पंच ‘रु बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मानो || मोह-भाव की ममता टारें, पर-परणति खोते | करें मोख का यतन निरास्रव, ज्ञानीजन होते ||१७|| ८. संवर भावना ज्यों मोरी में डाट लगावे, तब जल रुक जाता | त्यों आस्रव को रोके संवर, क्यों नहिं मन लाता || पंच-महाव्रत समिति गुप्ति कर, वचन-काय-मन को | दशविध-धर्म परीषह-बाईस, बारह-भावन को ||१८|| यह सब भाव सतावन मिलकर, आस्रव को खोते | सुपन-दशा से जागो चेतन, कहाँ पड़े सोते || भाव शुभाशुभ-रहित शुद्ध, भावन-संवर पावे | डाट लगत यह नाव पड़ी, मँझधार पार जावे ||१९|| ९. निर्जरा भावना ज्यों सरवर-जल रुका सूखता, तपन पड़े भारी | संवर रोके कर्म निर्जरा, ह्वे सोखनहारी || उदयभोग सविपाक-समय, पक जाय आम डाली | दूजी है अविपाक पकावे, पालविषैं माली ||२०|| पहली सबके होय, नहीं कुछ सरे काम तेरा | दूजी करे जु उद्यम करके, मिटे जगत्-फेरा || संवर-सहित करो तप प्रानी, मिले मुकति-रानी | इस दुलहिन की यही सहेली, जाने सब ज्ञानी ||२१|| १०. लोक भावना लोक-अलोक-अकाश माँहिं, थिर निराधार जानो | पुरुष-रूप कर-कटी धरे, षट्-द्रव्यन सों मानों || इसका कोई न करता-हरता, अमिट-अनादी है | जीव ‘रु पुद्गल नाचें या में, कर्म-उपाधी है ||२२|| पाप-पुण्य सों जीव जगत् में, नित सुख-दु:ख भरता | अपनी करनी आप भरे, सिर औरन के धरता || मोह-कर्म को नाश, मेटकर सब जग की आशा| निज-पद में थिर होय, लोक के शीश करो बासा ||२३|| ११. बोधि-दुर्लभ भावना दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु त्रसगति पानी | नर-काया को सुरपति तरसे, सो दुर्लभ प्रानी || उत्तम-देश सुसंगति दुर्लभ, श्रावक-कुल पाना | दुर्लभ-सम्यक् दुर्लभ-संयम, पंचम-गुणठाना ||२४|| दुर्लभ रत्नत्रय-आराधन, दीक्षा का धरना | दुर्लभ मुनिवर के व्रत-पालन, शुद्धभाव करना || दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन, बोधिज्ञान पावे | पाकर केवलज्ञान नहीं फिर, इस भव में आवे ||२५|| १२. धर्म भावना धर्म ‘अहिंसा परमो धर्म:’, ही सच्चा जानो | जो पर को दु:ख दे सुख माने, उसे पतित मानो || राग-द्वेष-मद-मोह घटा, आतम-रुचि प्रकटावे | धर्म-पोत पर चढ़ प्राणी भव-सिन्धु पार जावे ||२६|| वीतराग-सर्वज्ञ दोष-बिन, श्रीजिन की वानी | सप्त-तत्त्व का वर्णन जा में, सबको सुखदानी || इनका चिंतवन बार-बार कर, श्रद्धा उर-धरना | ‘मंगत’ इसी जतन तें इकदिन, भव-सागर तरना ||२७|| Singer : Rakesh Kala Music : Kishore Label : Brijwani Cassettes Produced By :Sajal Kumar Reference - Lyrics "www.jain4jain.com/jaininfo/p/barah-bhavna-vandu-shri-arihantpad-535.html"