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Bhaktamar Stotra in Malkauns Raag भक्तामर स्तोत्र मालकौंस राग Kshullak Shree Dhyansagarji Maharaj скачать в хорошем качестве

Bhaktamar Stotra in Malkauns Raag भक्तामर स्तोत्र मालकौंस राग Kshullak Shree Dhyansagarji Maharaj 10 месяцев назад

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Bhaktamar Stotra in Malkauns Raag भक्तामर स्तोत्र मालकौंस राग Kshullak Shree Dhyansagarji Maharaj

भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-, मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् । सम्यक्-प्रणम्य जिन प-पाद-युगं युगादा-, वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥1॥ य: संस्तुत: सकल-वां मय-तत्त्व-बोधा-, दुद्भूत-बुद्धि-पटुभि: सुर-लोक-नाथै: । स्तोत्रैर्जगत्-त्रितय-चित्त-हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥2॥ बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ!, स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् । बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-, मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥ वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र ! शशांक-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं, को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥4॥ सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश!, कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृत्त: । प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्, नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम् ॥5॥ अल्प-श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम, त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् । यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु: ॥6॥ त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्त-लोक-मलि-नील-मशेष-माशु, सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम् ॥7॥ मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु, मुक्ता-फल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु: ॥8॥ आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषं, त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि ॥9॥ नात्यद्-भुतं भुवन-भूषण ! भूूत-नाथ!, भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त-मभिष्टुवन्त: । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥10॥ दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष-विलोकनीयं, नान्यत्र-तोष-मुपयाति जनस्य चक्षु: । पीत्वा पय: शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो:, क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥11॥ यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं, निर्मापितस्-त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां, यत्ते समान-मपरं न हि रूप-मस्ति ॥12॥ वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि, नि:शेष-निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम् । बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम् ॥13॥ सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला-कलाप, शुभ्रा गुणास्-त्रि-भुवनं तव लंघयन्ति । ये संश्रितास्-त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं, कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥14॥ चित्रं-किमत्र यदि ते त्रिदशांग-नाभिर्, नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् । कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन, किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥15॥ निर्धूम-वर्ति-रपवर्जित-तैल-पूर:, कृत्स्नं जगत्त्रय-मिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश: ॥16॥ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्-जगन्ति । नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभाव:, सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥17॥ नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं, गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्पकान्ति, विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशांक-बिम्बम् ॥18॥ किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तम:सु नाथ! निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके, कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र: ॥19॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु । तेजो महा मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ॥20॥ मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:, कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥21॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥22॥ त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस, मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात् । त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं, नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था: ॥23॥ त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं, ब्रह्माणमीश्वर-मनन्त-मनंग-केतुम् । योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं, ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥24॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्, त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् । धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥25॥ तुभ्यं नमस्-त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ!, तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल-भूषणाय । तुभ्यं नमस्-त्रिजगत: परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥26॥ को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्, त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वै:, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥27॥ उच्चै-रशोक-तरु-संश्रितमुन्मयूख, माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं, बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति ॥28॥ सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम् । बिम्बं वियद्-विलस-दंशुलता-वितानं, तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥29॥ कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं, विभ्राजते तव वपु: कलधौत-कान्तम् । उद्यच्छशांक-शुचिनिर्झर-वारि-धार, मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥30॥ छत्रत्रयं-तव-विभाति शशांककान्त, मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर-प्रतापम् । मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभं, प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥31॥ गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभागस्, त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्ष: । सद्धर्म-राज-जय-घोषण-घोषक: सन्, खे दुन्दुभि-ध्र्वनति ते यशस: प्रवादी ॥32॥ मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात, सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टि-रुद्घा । गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता, दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा ॥33॥ शुम्भत्-प्रभा-वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते, लोक-त्रये-द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती । प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर-भूरि-संख्या, दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम् ॥34॥

Comments
  • Bhaktamar Stotra in Malkauns Raag | भक्तामर स्तोत्र मालकौंस राग| Kshullak Shree Dhyansagarji Maharaj 5 лет назад
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