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बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1॥ भावार्थ:-पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे॥1॥ जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥ अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥2॥ भावार्थ:-(श्री शिवजी कहते हैं कि-) हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई॥2॥ गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही। सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥3॥ भावार्थ:-(वह सोचने लगी कि) पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती॥3॥ *धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥ निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥4॥ भावार्थ:-(अंत में) हृदय में सोच-विचारकर, गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और मुनि (छिपे) थे। पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना॥4॥ छन्द : सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका। सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥ ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई। जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥ भावार्थ:-तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्माजी सब जान गए। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। (तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि-) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है॥ सोरठा : धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु। जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥ भावार्थ:-ब्रह्माजी ने कहा- हे धरती! मन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे॥184॥ चौपाई : बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥ पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1॥ भावार्थ:-सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) करें। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं॥1॥ जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥ तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥2॥ भावार्थ:-जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ (उसके लिए) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वती! उस समाज में मैं भी था। अवसर पाकर मैंने एक बात कही-॥2॥ हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥ भावार्थ:-मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥ अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥ मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥ भावार्थ:-वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई की॥4॥ दोहा : सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर। अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥ भावार्थ:-मेरी बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥185॥ जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता। गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥ पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई। जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥ भावार्थ:-हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री लक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा करें॥1॥ जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा। अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा। निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥2॥ भावार्थ:-हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृन्द भी अत्यन्त अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो॥2॥ शेष यहाँ: https://hindi.webdunia.com/religion/r...