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डर और सुख के गहरे संबंध पर यह दुर्लभ सार्वजनिक प्रवचन जिद्दू कृष्णमूर्ति ने 1970 के दशक में सैंटा मोनिका, कैलिफ़ोर्निया में दिया था। इस वार्ता में वे दिखाते हैं कि कैसे विश्लेषण की मनोवैज्ञानिक आदत, ‘विश्लेषक’ और ‘जिसका विश्लेषण हो रहा है’ के बीच की कल्पित दूरी और समय पर आधारित अंतहीन छानबीन हमें कभी भी वास्तविक समझ तक नहीं पहुँचने देती। कृष्णमूर्ति बताते हैं कि डर और सुख अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; विचार (थॉट) ही बीते हुए अनुभवों की स्मृति के आधार पर भविष्य की कल्पना करता है और इसी से भय और सुख दोनों को जन्म देता व बनाए रखता है। वे समझाते हैं कि मृत्यु, असफलता, अकेलेपन या अस्वीकृति का डर तब पैदा होता है जब मन अतीत की घटनाओं या भविष्य की संभावनाओं के बारे में सोचने लगता है, जबकि प्रत्यक्ष अवलोकन के क्षण में ऐसा डर नहीं होता। इस प्रवचन में वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि आनंद का क्षण स्वयं में पवित्र और ताज़ा होता है, परंतु जब मन उसे दोहराने की इच्छा करता है तो वही आनंद मनोवैज्ञानिक सुख में बदल जाता है और उसकी खोज संघर्ष, निराशा और भय को जन्म देती है। कृष्णमूर्ति श्रोता को आमंत्रित करते हैं कि वे किसी गुरु, पद्धति या विचारधारा पर निर्भर हुए बिना अपने ही भीतर डर, सुख, विचार और स्मृति की पूरी संरचना को सजगता से देखें। वीडियो में वे यह संकेत देते हैं कि जब मन विश्लेषण की निरर्थकता और विचार द्वारा पोषित भय-सुख के पूरे खेल को सीधे देख लेता है, तो उसमें एक ऐसी बुद्धिमत्ता जागती है जो ज्ञान, परंपरा या बौद्धिक प्रशिक्षण से नहीं आती। यही जीवंत बुद्धिमत्ता हर क्षण में डर का सामना करती है, उसे टालती नहीं, और इसी प्रत्यक्ष भेंट में भय का अंत संभव होता है, जिससे जीवन को गंभीरता, संवेदनशीलता और स्वतंत्रता के साथ जीने का मार्ग खुलता है।