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प्रारंभिक जीवन और कृष्ण भक्ति जन्म: लगभग 1498 ईस्वी, कुड़की गाँव, मेड़ता, राजस्थान में। माता-पिता: रत्न सिंह राठौर और वीर कुमारी। पालन-पोषण: बचपन में माता के निधन के बाद उनके आध्यात्मिक दादा राव दूदा ने उन्हें मेड़ता लाकर पाला, जिससे वे कृष्ण भक्ति की ओर आकर्षित हुईं। कृष्ण से प्रेम: बचपन से ही उन्होंने कृष्ण को अपना पति मान लिया और उनके प्रति अनन्य प्रेम विकसित किया। विवाह और जीवन के मोड़ विवाह: 1516 में मेवाड़ के राणा सांगा के पुत्र भोजराज से उनका विवाह हुआ, हालांकि वे इसके विरुद्ध थीं। पति की मृत्यु: विवाह के कुछ वर्षों बाद, युद्ध में भोजराज की मृत्यु हो गई (लगभग 1518)। ससुराल वालों का अत्याचार: पति की मृत्यु के बाद, परिवार ने मीरा पर सती होने का दबाव डाला और अत्याचार किए, क्योंकि वे कृष्ण भक्ति में लीन रहती थीं। भक्ति और विरक्ति संसार त्याग: इन कष्टों के कारण मीरा संसार से विरक्त हो गईं और ससुराल छोड़ दिया, साधु-संतों की संगति में रहने लगीं। भक्ति मार्ग: उन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण भक्ति, गायन और पदों की रचना में बिताया। साहित्य और विरासत भाषा: उनकी कविताएँ मुख्य रूप से राजस्थानी मिश्रित ब्रज भाषा में हैं, जिनमें गुजराती और अन्य भाषाओं का प्रभाव भी दिखता है। प्रमुख रचनाएँ: उनके पदों में कृष्ण के प्रति गहरा प्रेम, वियोग और आध्यात्मिक अनुभव झलकता है, जैसे 'मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई' और 'पायो जी मैंने राम रतन धन पायो'। गुरु: संत रैदास उनके गुरु माने जाते हैं। निधन: 1547 में द्वारका, गुजरात में भक्ति करते हुए श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं। मीराबाई भारतीय भक्ति आंदोलन की एक महत्वपूर्ण शख्सियत हैं, जिन्होंने सामाजिक बंधनों को तोड़कर अपनी भक्ति और कविताओं से लाखों लोगों को प्रेरित किया।