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उन्नीसवीं सदी का यूरोपीय भाषा-विज्ञान, जिसे प्रारंभ में भाषाई संबंधों के विज्ञान के रूप में गढ़ा गया था, धीरे-धीरे एक ऐसे पदानुक्रम में बदल गया जिसने भाषा को वंश से और व्याकरण को नस्ल से जोड़ दिया। जो संस्कृत, यूनानी और लैटिन की विद्वत्तापूर्ण तुलना के रूप में आरंभ हुआ, वही आगे चलकर “आर्य” मिथक बन गया—एक काल्पनिक “श्रेष्ठ वंश” की कथा जिसने साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद और यूरोप के आत्म-प्रतिमान को सभ्यता के केंद्र के रूप में स्थापित करने का औचित्य प्रदान किया। ब्रिटिश विद्वानों और प्रशासकों ने इस सिद्धांत को भारत में निर्यात किया, जहाँ “आर्य–द्रविड़” विभाजन का उपयोग औपनिवेशिक शासन और सामाजिक श्रेणीकरण को तर्कसंगत ठहराने के लिए किया गया। इस प्रकार भाषाई वर्गीकरण धीरे-धीरे राजनीतिक और नस्लीय वास्तविकताओं में बदल गए। स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, तिलक और आंबेडकर जैसे चिंतकों ने “आर्य” विचार की पुनर्व्याख्या या अस्वीकृति की—किसी ने उसमें निहित नैतिक और आध्यात्मिक अर्थ को पुनर्स्थापित किया, किसी ने उसके नस्ली दुरुपयोग को चुनौती दी, और किसी ने उसकी तर्क-व्यवस्था को ही विखंडित कर दिया। “आर्य” मिथक भले ही खंडित हो चुका हो, पर वह आज भी जीवित है जहाँ कहीं भाषा को नियति का द्योतक माना जाता है। उसका इतिहास यह चेतावनी देता है कि व्यवस्था के नाम पर रचे गए बौद्धिक तंत्र अंततः प्रभुत्व और विनाश के उपकरण बन सकते हैं। Website - https://stophindudvesha.org/ Instagram - / stop_hindudvesha Facebook - / hindudvesha Twitter - / ihindudvesha Twitter Hindi- https://x.com/StopHinduDvesha #Hindudvesha #hindu #religion #NRI #america #sanatan #dharma #India #youtube This channel is owned, operated, and managed by, Hindudvesha.org