У нас вы можете посмотреть бесплатно Chapter -17 || Visanu Puran || Part -1 ||विष्णु पुराण प्रथम अंश सत्रहवां अध्याय| पौराणिक कथा|हिन्दी или скачать в максимальном доступном качестве, видео которое было загружено на ютуб. Для загрузки выберите вариант из формы ниже:
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ॐ श्री मन्नारायणाय नम: 'नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम । देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।। श्री विष्णुपुराण (प्रथम अंश) "सतरहवाँ अध्याय" "हिरण्यकशिपु का दिग्विजय और प्रल्हाद-चरित" श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! उन सर्वदा उदारचरित परमबुद्धिमान महात्मा प्रल्हादजी का चरित्र तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो।पूर्वकाल में दिति के पुत्र महाबली हिरण्यकशिपु ने, ब्रह्माजी के वर से गर्वयुक्त (सशक्त) होकर सम्पूर्ण त्रिलोकी को अपने वशीभूत कर लिया था।वह इन्द्रपद का भोग करता था।वह महान असुर स्वयं ही सूर्य, वायु, अग्नि, वरुण और चन्द्रमा बना हुआ था।वह स्वयं ही कुबेर और यमराज भी था और वह असुर स्वयं ही सम्पूर्ण यज्ञ-भागों का भोगता था । हे मुनिसत्तम ! उसके भय से देवगण स्वर्ग को छोड़कर मनुष्य-शरीर धारणकर भूमंडल में विचरते रहते थे। इस प्रकार सम्पूर्ण त्रिलोकी को जीतकर त्रिभुवन के वैभव से गर्वित हुआ और गन्धर्वों से अपनी स्तुति सुनता हुआ वह अपने अभीष्ट भोगों को भोगता था। उस समय उस मद्यपान आसक्त महाकाय हिरण्यकशिपु की ही,समस्त सिद्ध, गन्धर्व और नाग आदि उपासना करते थे। उस दैत्यराज के सामने सिद्धगण तो बाजे बजाकर उसका यशोगान एवं जय-जयकार करते और वह असुरराज वहाँ स्फटिक एवं अभ्र-शिला के बने हुए मनोहर महल में, जहाँ अप्सराओं का उत्तम नृत्य हुआ करता था, प्रसन्नता के साथ मद्यपान करता रहता।उसका प्रल्हाद नामक महाभाग्यवान पुत्र था | वह बालक गुरु के पास जाकर बालोचित पाठ पढने लगा।एक दिन वह धर्मात्मा बालक गुरूजी के साथ अपने पिता दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पास गया जो उस समय मद्यपान में लगा हुआ था। अपने चरणों में झुके हुए अपने परम तेजस्वी पुत्र प्रल्हादजी को उठाकर उसके पिता हिरण्यकशिपु ने कहा- वत्स ! अब-तक अध्ययन में निरंतर तत्पर रहकर तुमने जो कुछ पढ़ा है उसका सारभूत शुभ भाषण हमें सुनाओ। प्रल्हाद बोला – पिताजी ! मेरे मन में जो सबके सारांशरूप से स्थित है वह मैं आपकी आज्ञानुसार सुनाता हूँ, सावधान होकर सुनिये।जो आदि, मध्य और अंत से रहित, अजन्मा, वृद्धि-क्षय शून्य और अच्युत है, समस्त कारणों के कारण तथा जगत की स्थिति और अंतकर्ता उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ । यह सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने क्रोध से नेत्र लाल कर प्रल्हाद के गुरु की ओर देखकर कंपकपाते हुए ओठों से कहा- रे दुर्बुद्धि ब्राह्मणाधम ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा कर इस बालक को मेरे विपक्षी की स्तुति से युक्त असार शिक्षा दी है । गुरूजी ने कहा ;– दैत्यराज ! आपको क्रोध के वशीभूत न होना चाहिये | आपका यह पुत्र मेरी सिखायी हुई बात नहीं बोल रहा है । हिरण्यकशिपु बोला ;– बेटा प्रल्हाद ! बताओं,तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरुजी कहते है कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया ही नही है । प्रल्हादजी बोले ;– पिताजी ! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत के उपदेशक है | उस परमात्मा को छोड़कर और कौन किसी को कुछ सीखा सकता है ? हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे मुर्ख ! जिस विष्णु का तू मुझ जगदीश्वर के सामने धृष्टतापूर्वक निश्शंक होकर बारंबार वर्णन करता है, वह कौन है ? प्रल्हादजी बोले ;– योगियों के ध्यान करने योग्य जिसका परमपद वाणी का विषय नहीं हो सकता तथा जिससे विश्व प्रकट हुआ है और जो स्वयं विश्वरूप है वह परमेश्वर ही विष्णु है । हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे मूढ़ ! मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू ,मौत के मुख में जाने की इच्छा से बारंबार ऐसा बक रहा है। प्रल्हादजी बोले ;– हे तात ! वह ब्रह्मभूत विष्णु तो केवल मेरा ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रजा और आपका भी कर्त्ता, नियंता और परमेश्वर है | आप प्रसन्न होइये, व्यर्थ क्रोध क्यों करते है। हिरण्यकशिपु बोले ;– अरे कौन पापी इस दुर्बुद्धि बालक के ह्रदय में घुस बैठा है जिससे आविष्टचित्त होकर यह ऐसे अमंगल वचन बोलता है ? प्रल्हादजी बोले ;– पिताजी ! वे विष्णु भगवान तो मेरे ही ह्रदय में नही, बल्कि सम्पूर्ण लोकों में स्थित है | वे सर्वगामी तो मुझको, आप सबको और समस्त प्राणियों को अपनी-अपनी चेष्टाओं में प्रवृत्त करते है । हिरण्यकशिपु बोला ;– इस पापी को यहाँ से निकालो और गुरु के पास ले जाकर इसे भली प्रकार शिक्षित करो | इस दुर्मति को न जाने किसने मेरे विपक्षी की प्रशंसा में नियुक्त कर दिया है । उसके ऐसा कहने पर दैत्यगण उस बालक को फिर गुरूजी के पास ले गये। प्रल्हाद वहाँ गुरूजी की रात-दिन भली प्रकार सेवा-शुश्रूषा करते हुए विद्याध्ययन करने लगे।बहुत काल व्यतीत हो जाने पर दैत्यराज ने प्रल्हादजी को फिर बुलाया और कहा – ‘बेटा ! आज कोई गाथा (कथा) सुनाओ’। प्रल्हादजी बोले ;– जिनसे प्रधान, पुरुष और यह चराचर जगत उत्पन्न हुआ है वे सकल प्रपंच के कारण श्रीविष्णुभगवान हमपर प्रसन्न हो। हिरण्यकशिपु बोले ;– अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है ! इसको मार डालो; अब इसके जीने से कोई लाभ नहीं है,क्योंकि स्वपक्ष की हानि करनेवाला होने से यह तो अपने कुल के लिये अंगाररूप हो गया है। उसकी ऐसी आज्ञा होने पर सैकड़ो-हजारों दैत्यगण बड़े-बड़े अस्त्र – शस्त्र लेकर उन्हें मारने के लिये तैयार हुए। प्रल्हादजी बोले ;– अरे दैत्यों ! भगवान विष्णु तो शस्त्रों में, तुम लोगों में और मुझमें सर्वत्र ही स्थित है | इस सत्य के प्रभाव से इन अस्त्र-शस्त्रों का मेरे ऊपर कोई प्रभाव न होगा। तब उन सैकड़ो दैत्यों के शस्त्र-समूह का आघात होने पर भी उसे तनिक-सी भी वेदना न हुई, वे फिर भी ज्यों- के – त्यों नवीन बल-सम्पन्न ही रहे। हिरण्यकशिपु बोला ;– रे दुर्बुद्धे ! अब तू विपक्षी की स्तुति करना छोड़ दें; जा, मैं तुझे अभय-दान देता हूँ, अब और अधिक नादान मत हो। प्रल्हादजी बोले ;– हे तात ! जिनके 09062025(2052)