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तीर्थंकर ऋषभदेव प्रो. अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्णा नवमी को अयोध्या में हुआ था तथा माघ कृष्णा चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाशपर्वत से हुआ था। आचार्य जिनसेन के आदिपुराण में तीर्थकर ऋषभदेव के जीवन चरित का विस्तार से वर्णन है।ऋषभदेव का भारत के स्वाभिमान ,स्वावलंबन और स्वाधीनता के लिए अतुलनीय योगदान है । स्वावलंबन की आधारशिला - तीर्थंकर ऋषभदेव ने स्वावलंबी होना सिखाया । पौराणिक मान्यता है कि पहले भोगभूमि थी और मनुष्यों की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्ष से हो जाती थी अतः वे परिश्रम नहीं करते थे । कर्म भूमि के प्रारंभ होते ही कल्पवृक्ष समाप्त होने लगे । मनुष्यों के सामने संकट खड़ा हो गया कि वे जीवन का निर्वहन कैसे करें ? अयोध्या के राजा ऋषभदेव ने लोगों को खेती करना और अन्न उपजाना सिखाया । उन्होंने षट्कर्म की शिक्षा दी - असि,मसि,कृषि ,विद्या ,वाणिज्य और शिल्प ।भारत के मनुष्यों को सबसे पहले इन षट्कर्मों के माध्यम से स्वावलंबी बनाया । स्त्री शिक्षा और सशक्तिकरण- तीर्थंकर ऋषभदेव ने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत क्रांति की । वे जानते थे कि स्त्री शिक्षित होकर ही स्वावलंबी और सशक्त हो सकती है । सर्वप्रथम उन्होंने ॐ नमः सिद्धं मन्त्र का उच्चारण करवाकर अपनी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को गोद में बैठाकर क्रमशः दायें हाथ से लिपि विद्या और बाएं हाथ से अंक विद्या (गणित ) की शिक्षा दी । यही कारण है कि आज भी इकाई दहाई संख्या की गणना बायीं ओर से की जाती है । अक्षर अर्थात् वर्णमाला दायीं ओर से पढ़ी जाती है । भारत में सबसे प्राचीन लिपि जिसमें सम्राट अशोक के शिलालेख लिखे गए थे उसका नाम ब्राह्मी लिपि ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के नाम पर ही पड़ा । पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा - तीर्थंकर ऋषभदेव ने दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र एक व्यवस्थित स्वतंत्रता की अवधारणा प्रस्तुत की और वह थी आत्मा को ही परमात्मा कहने की । ’अप्पा सो परमप्पा’ –यह उनका उद्घोष वाक्य था । उसके बाद शेष तेईस तीर्थंकर इसी दर्शन को आधार बना कर स्व-पर का कल्याण करते रहे । प्रत्येक मनुष्य तप के माध्यम से स्वयं अपने समस्त दोषों को दूर करके भगवान् बन सकता है अर्थात् कोई भी आत्मा किसी अन्य परमात्मा के आधीन नहीं है और वह पूर्ण स्वतंत्रता है और मुक्ति को प्राप्त कर सकता है । उनका यह दर्शन उन्हें दुनिया के उन धर्मों से अलग करता है जो यह मानते हैं कि ईश्वर मात्र एक है तथा मनुष्य उसके आधीन है और मनुष्य स्वयं कभी परमात्मा नहीं बन सकता । ऋषभदेव का यह स्वर भारतीय दर्शन में भी मुखरित हुआ । उसकी चर्चा संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद इन शब्दों में करता है- “ त्रिधा बद्धोवृषभोरोरवीतिमहादेवोमत्यां आ विवेश॥“ इस मन्त्रांश का सीधा शब्दार्थ है-तीन स्थानों से बंधे हुये वृषभ ने बारंबार घोषणा की कि महादेव मनुष्यों में ही प्रविष्ट हैं। यह घोषणा आत्मा को ही परमात्मा बनाने की घोषणा है। आत्मा में परमात्मा के दर्शन करने के लिए मन, वचन, काय का संयम आवश्यक है। यह त्रिगुप्ति ही वृषभ का तीन स्थानों पर संयमित होना है। पहला निःशस्त्रीकरण - ऋषभदेव के प्रमुख दो पुत्र चक्रवर्ती भरत और बाहुबली के बीच जब युद्ध की नौबत आ गई और दोनों ओर सेनाएं खड़ी थीं तब यह विचार हुआ कि झगडा भरत और बाहुबली के बीच है तो सेना युद्ध करके क्यों मरे ? जन-धन की हानि क्यों हो ? संवाद के माध्यम से यह तय हुआ कि युद्ध बिना किसी शस्त्र के भरत और बाहुबली के बीच ही होगा । निर्णयानुसार बिना किसी शस्त्र के जल युद्ध ,मल्ल युद्ध और दृष्टि युद्ध हुआ और बाहुबली विजयी हुए ,बाहुबली ने ज़ीतने के बाद भी राज्य भरत को दे दिया और स्वयं दीक्षा ग्रहण करके तपस्या करने चले गए । आज चारों तरफ युद्ध का वातावरण है,निःशस्त्रीकरण की अवधारणा सिर्फ इसीलिए आई थी कि शस्त्र होगा तो कभी न कभी युद्ध भी होगा और तबाही मनुष्य की ही होगी । इतिहास के अनेक युद्धों में अहिंसक युद्ध का और निःशस्त्रीकरण का पहला उदाहरण भी ऋषभदेव के समय में ही मिलता है । देश का भारत नामकरण – भारत के तीर्थंकर ऋषभदेव का मानव सभ्यता के विकास में इतना जबरजस्त योगदान था कि सिर्फ भारत की हिन्दू परम्परा ही नहीं बल्कि अनेक देशों की परम्पराओं में उनका उल्लेख प्राप्त होता है । इस देश ने तो अपना नाम ही ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर ‘भारत’ रखकर उनका उपकार माना है । सिर्फ जैन ग्रंथों में ही नहीं बल्कि वैदिक परंपरा के अनेक पुराणों में दर्जनों स्थान पर इस बात की उद्घोषणा भी की गई है । अग्निपुराण (१०/११ ) में उद्धरण है - ऋषभोदात् श्री पुत्रे शाल्यग्रामे हरिं गतः । भरताद् भारतं वर्षं भरतात् सुमति स्त्वभूत् । । जीवन जीने की कला का सूत्रपात - तीर्थंकर ऋषभदेव ने स्वयं अयोध्या में राजपाठ तो किया ही किन्तु बाद में विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण कर जंगलों में जाकर तपस्या की और कैवल्यज्ञान की प्राप्ति कर मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त किया । कृषि करो और ऋषि बनो – इस सूत्र के मंत्रदाता के रूप में उन्होंने जीवन जीने की कला सिखलाई । कृषि करना भी सिखाया और तदनंतर ऋषि बनना भी सिखाया । आज भी हमारा देश और कृषि और ऋषि प्रधान देश माना जाता है । तीर्थंकर ऋषभदेव के जीवन में और उपदेश में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अद्भुत समन्वय था ,शायद इसीलिए प्रवृत्ति प्रधान मानी जाने वाली वैदिक परंपरा और निवृत्ति प्रधान मानी जाने वाली श्रमण परंपरा दोनों के ही वे आराध्य हैं और दोनों के ही शास्त्रों में उनका पुण्य स्मरण अत्यंत श्रद्धा के साथ किया गया है । इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति को जोड़कर रखने वाले भगवान् ऋषभदेव के जन्मकल्याणक को सभी मिलकर मनाएं तो भारतीय संस्कृति का नया मार्ग प्रशस्त होगा ।