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एकिभाव स्तोत्र Ekibhav Stotra अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठि भगवान की जय परमपुज्य आचार्य गुरूवर श्री विद्यासागरजी महाराज की जय आर्यिका रत्न श्री पुर्णमति माताजी की जय आचार्य प्रवर वादिराज मुनिमहाराज द्वारा रचित एकिभाव स्तोत्र का पद्यानुवाद आर्यिका रत्न श्री पुर्णमति माताजी द्वारा रचित प्रस्तुत है एकीभाव संस्कृत स्तोत्र के रचियता आचार्य श्री वादिराज हैं| आपकी गणना महान् आचार्यों में की जाती है| आप महान वाद-विजेता और कवि थे| आपकी पार्श्वनाथ चरित्र, यशोधर चरित्र, एकीभाव स्तोत्र, न्याय-विनिश्यिय विवरण, प्रमाण निर्णय ये पांच कृतियाँ प्रसिद्ध हैं| आपका समय विक्रम की 11 वीं शताब्दी माना जाता है| आपका चौलुक्य नरेश जयसिंह (प्रथम) की सभा में बडा़ सम्मान था| 'वादिराज' यह नाम नही वरन् पदवी है| प्रख्यात वादियों में आपकी गणना होने से आप वादिराज के नाम से प्रसिद्ध हुए| निस्पृही आचार्य श्री वादिराज ध्यान में लीन थे| कुछ द्वेषी व्यक्तियों ने उन्हें कुष्ट-ग्रस्त देखकर राजसभा में जैन मुनियों का उपहास किया जिसे जैनधर्म प्रेमी राजश्रेष्ठी सहन न कर सके और भावावेश में कह उठे कि हमारे मुनिराज की काया तो स्वर्ण जैसी सुन्दर होती है| राजा ने अगले दिन मुनिराज के दर्शन करने का विचार रखा| सेठ ने मुनिराज से सारा विवरण स्पष्ट कह कर धर्मरक्षा की प्रार्थना की| मुनिराज ने धर्मरक्षा और प्रभावना हेतु एकीभाव स्तोत्र की रचना की जिससे उनका शरीर वास्तव में स्वर्ण सदृश हो गया| राजा ने मुनिराज के दर्शन करके और उनके रुप को देखकर चुगल-खोरों को दण्ड दिया| परन्तु उत्तम क्षमाधारक मुनिराज ने राजा को सब बात समझा कर तथा सबका भ्रम दूर कर सबको क्षमा करा दिया| इस स्तोत्र का श्रद्धा एवं पूर्ण मनोयोग पूर्वक पाठ करने से समस्त व्याधियां दूर होती हैं तथा सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं|