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Ishavasya Upanishad -Part-9/9 ईशावास्य उपनिषद (Ishavasya Upanishad) का परिचय ईशावास्य उपनिषद हिंदू धर्म के दस मुख्य उपनिषदों में सबसे महत्वपूर्ण और प्रथम स्थान पर रखा गया है। यह शुक्ल यजुर्वेद का 40वाँ और अंतिम अध्याय है। अपने छोटे आकार (केवल 18 मंत्र) के बावजूद, इसे वेदांत (ज्ञान का अंतिम भाग) का सार माना जाता है, जिसमें जीवन और मोक्ष के सबसे गहरे सत्य समाहित हैं। इसका नाम इसके पहले मंत्र के पहले शब्द "ईशा वास्यम्" (अर्थात ईश्वर से आच्छादित/ढका हुआ) से लिया गया है। मुख्य शिक्षा और सिद्धांत ईशावास्य उपनिषद मुख्य रूप से ज्ञान (Jnana) और कर्म (Karma) के बीच संतुलन और समन्वय स्थापित करने पर जोर देता है: 1. ईश्वर की सर्वव्यापकता (Isha Vasyam Idam Sarvam) यह उपनिषद की नींव है, जिसे पहले मंत्र में स्पष्ट किया गया है: ॐ ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥ अर्थ: इस चंचल संसार में जो कुछ भी गतिशील (चर) और स्थिर (अचर) है, वह सब ईश्वर से आच्छादित है (अर्थात ईश्वर उसमें व्याप्त है)। इसलिए, त्याग की भावना से इसका उपभोग करो। किसी के भी धन की इच्छा या लोभ मत करो। यह सिद्धांत बताता है कि हर वस्तु का मालिक ईश्वर है, और मनुष्य को स्वयं को केवल उसका संरक्षक (ट्रस्टी) मानना चाहिए। वास्तविक आनंद भोग से नहीं, बल्कि अनासक्ति (detachment) से आता है। 2. कर्म और मोक्ष का समन्वय यह उपनिषद कर्म करने का निषेध नहीं करता, बल्कि कर्म को निष्काम भाव से करने की शिक्षा देता है: कर्म का मार्ग: मनुष्य को सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखते हुए भी फल की आसक्ति के बिना (निष्काम भाव से) कर्म करना चाहिए। यही एक मात्र मार्ग है जिससे कर्मों का बंधन नहीं लगता। ज्ञान का मार्ग: ज्ञान के माध्यम से आत्मा की अमरता और परमात्मा के साथ उसकी एकता को जानना मोक्ष की ओर ले जाता है। 3. आत्म-दर्शन (Self-Realization) उपनिषद उस ज्ञानी पुरुष की अवस्था का वर्णन करता है जो आत्म-साक्षात्कार कर चुका है: सर्वत्र आत्मा का दर्शन: जो व्यक्ति सभी प्राणियों में स्वयं (आत्मा) को और स्वयं (आत्मा) में सभी प्राणियों को देखता है, वह कभी भी मोह या शोक से ग्रस्त नहीं होता। परमात्मा का स्वरूप: ईश्वर को अचल, मन से भी अधिक वेगवान, दूर और निकट, सबके अंदर और सबके बाहर व्याप्त बताया गया है—जो निराकार, शुद्ध, निष्पाप और सर्वज्ञ है। 4. विद्या और अविद्या का संतुलन यह उपनिषद विद्या (ज्ञान) और अविद्या (कर्म) को एक साथ साधने की आवश्यकता पर बल देता है: अविद्या (कर्म) के द्वारा मनुष्य मृत्यु (भौतिक बंधन) को पार करता है। विद्या (ज्ञान) के द्वारा मनुष्य अमरत्व (मोक्ष) को प्राप्त करता है। ईशावास्य उपनिषद अंततः अद्वैत (अद्वैतवाद) के सिद्धांत को बहुत ही संक्षिप्त और स्पष्ट तरीके से स्थापित करता है—ब्रह्म ही सत्य है, और यह संपूर्ण जगत उसी से ओत-प्रोत है। ईशावास्य उपनिषद के बारे में और कोई विशेष मंत्र या सिद्धांत जानना चाहेंगे?