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मैं। किसी की बेटी, किसी की धर्मपत्नी, किसी की बहू। मैं किसी की माँ, किसी की बहन, और किसी की भाभी, मासी, चाची, ताई, बुआ। इन सभी रिश्तों में मुझे अपार खुशी मिलती है। पर क्या मैं सिर्फ यही हूँ? तीस की दहलीज़ पर कदम रखते ही यह सवाल मेरे मन में बार-बार गूंजने लगा। मुझे जीवन में कोई कमी नहीं थी, मुझसे किसी को कोई बड़ी उम्मीद नहीं थी। खुश रहना, स्वस्थ रहना, घर और अपनों का ध्यान रखना—यही काफी था। पर मुझमें कहीं कोई अधूरापन था, कोई अनसुनी पुकार थी। मैंने खुद से पूछा—अगर ये सारे रिश्ते एक दिन मुझसे छूट जाएं, तो क्या मैं अपने आप को पहचान भी पाऊँगी? परत-दर-परत सीखा-समझा हुआ उधेड़ने लगी, और पाया कि मैं ही खुद को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पा रही थी, फिर दुनिया से क्या उम्मीद करती? अमृता प्रीतम लिखती हैं— “औरत जन्म नहीं लेती, उसे जन्म देना पड़ता है खुद को बार-बार।” शायद यही मेरी यात्रा थी—खुद को जन्म देने की। मैं आईने में एक डरी हुई, व्याकुल लड़की को देखती थी। क्या मैं कभी किसी औरत का, किसी बच्ची का मार्गदर्शन कर पाऊँगी? क्या मेरी बेटी भी खुद को केवल अपने रिश्तों में ही तलाशेगी? या फिर मैं उसे सिखा पाऊँगी कि उसका सबसे पहला रिश्ता खुद से है? धीरे-धीरे, सवालों की धुंध छटने लगी। और अब, मैं अपना परिचय ज़रा और ठीक से देना चाहती हूँ— मैं एक लेखिका हूँ, कत्थक नृत्य की छात्रा हूँ। मैं 45 वर्ष की हूँ, और मेरे पास अब भी ढेरों सपने हैं जो पूरे करने हैं। -मुझे अपनी किताब लिखनी है। -दुनिया घूमनी है। -हज़ारों लोगों के सामने मंच पर कत्थक करना है, और तालियों की गड़गड़ाहट में खो जाना है। -फिर से sky dive, deep sea dive करना है। -अपनी college friends के साथ एक बेतकल्लुफ़ छुट्टी बितानी है। -अकेले एक solo trek पर जाना है, बाइक चलानी सीखनी है। -मन भर के खाना बनाना है, और चटकारे लेकर खाना भी है। -बिना झिझक अपनी बात कहनी है। -आखिरी सांस तक अपने लिए वही खरीदने की क्षमता रखनी है, जो मेरा मन चाहे। -दिल खोलकर बांटना है। और हाँ, मैं अब भी बेटी, बहू, बीवी, माँ, बहन, भाभी, मामी, चाची, बुआ हूँ— पर सबसे पहले, मैं खुद की साथी हूँ। मेरे रिश्तों ने अपना किरदार खूब निभाया मेरे चारों तरफ से मुझे हमेशा साहस, सम्बल, सराहना और शाबाशी मिली है मैं चाहती हूँ मैं ऐसी बनूँ की मेरे घर के सभी आदमी मेरी सफलता में थोड़े ज़्यादा चौड़े होक चलें मेरे घर की सभी औरतें मेरे साथ नाचती गाती, खिलखिलाती चलें मुझसे दुगुनी तिगुनी तरक्की करें मेरे जीवनसाथी को मेरा उतना ही सहारा ये घर चलने में हो जितना मुझे उसका सहारा अपने बेटी को सँभालने में है मैं चाहती हूँ मैं ऐसी बनूँ की जब मेरी बेटी मुझे देखे, तो उसकी आँखों में सिर्फ प्रेम ही नहीं, गर्व भी हो। जब कोई लड़की, जो खुद को तलाश रही हो, मुझे देखे—तो उसे एक उम्मीद मिले। और जब मैं खुद को आईने में देखूं, तो मेरी अपनी ही छवि मुझसे कहे— वाह! क्या जीती हो ज़िन्दगी को तुम! “जो तुमसे लिपटी परिभाषाएँ हैं, उन्हें झटक दो। अपने लिए एक नई भाषा गढ़ो, और फिर बेझिझक, बेबाक, गगन से ऊँची अपनी कहानी लिखो।” – महादेवी वर्मा