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Class 10.01 summary अध्याय दस प्रारम्भ करते हुए मुनि श्री ने बताया कि - आस्रव और बन्ध से संसार बढ़ता है। और संवर और निर्जरा से मुक्त होने का प्रकरण शुरू होता है। निर्जरा में कर्म एकदेश झड़ता है और क्षय में उसका आत्मा से अस्तित्व ही ख़त्म हो जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव पहले व्रत, संयम, समिति, गुप्तियों से, संवर और निर्जरा से पुण्य का आस्रव और बन्ध करता है। वह पुण्यास्रव मोक्षमार्ग में बाधक नहीं होता। वह तो उसकी विशुद्धि बढ़ाने में help करता है। पुरुषार्थ करते हुए पुण्यास्रव को साथ में लेना ही होता है। क्योंकि सातवें अध्याय में आए व्रतों को प्राप्त किए बिना, पुण्यास्रव को प्राप्त किए बिना गुप्तियाँ, समितियाँ रूप संवर के साधन कभी भी उपलब्ध नहीं होते। शुभ-अशुभ किसी भी कर्म का क्षय कोई भी बुद्धिपूर्वक नहीं करता। वह तो ध्यान अवस्था में अपने आप होता है। बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ से जब अरिहन्त दशा प्राप्त हो जाती है तो पुण्य कर्मों का क्षय स्वतः हो जाता है। अरिहन्त दशा में ही पुण्य का अभाव होकर मोक्ष होता है, कभी भी कोई श्रावक या साधु पुण्य का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त नहीं करते। पुण्य शुभ भावों से होता है, जो व्रत से आते हैं इसलिए व्रत केवल शुभ भाव करता है जो बन्ध का कारण है, जिससे संसार होता है- हमें इस उलटे पाठ से बचना चाहिए। क्योंकि बिना व्रत रुपी पुरुषार्थ के कोई भी तीर्थंकर, भगवान, जिनवाणी या गुरु हमारे अन्दर बैठकर कर्मबन्धन को तोड़ नहीं सकते। इसकी शुरुआत व्रतों से ही होती है। बिना व्रतों के समितियाँ, और बिना समितियों के गुप्ति और कोई चारित्र नहीं हो सकता। और हम संसार में ही घूमते रहेंगे। उन्हें पुण्य का कारण होने से संसार का कारण बता कर उनसे विरक्ति दिलाना जिनवाणी का अवर्णवाद होता है। विरति होने पर ही गुप्तियाँ मिलेंगी। गुप्तियों से ही सामायिक चारित्र में प्रवृत्ति होगी। और तभी तप के माध्यम से कुछ निर्जरा का साधन बनेगा। व्रतों से इतना पुण्य आ जाता है कि हम ‘उत्तम-संहननस्यैकाग्र-चिंतानिरोधो-ध्यानम्’ के योग्य बन जाते हैं। सातवें अध्याय में आए प्रवृत्ति रूप व्रत ही नौवें अध्याय में निवृत्ति रूप बताए गए हैं। जब प्रवृत्ति रूप होंगे तो निवृत्ति होगी। सम्यग्दर्शन पूर्वक लिए गए व्रतों से होने वाला पुण्य कभी भी मोक्ष मार्ग में बाधक नहीं होता। सूत्र एक “मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम्” में हमने केवलज्ञान की प्राप्ति का उपाय जाना इसमें ‘मोहक्षयात्’ और ‘ज्ञानदर्शनावरणांतराय-क्षयाच्च’ इन दो पदों को विभक्ति तोड़ कर लिखा गया है। क्योंकि इनका क्षय एक साथ नहीं होता। पहले मोह का क्षय होता है। उसके क्षय करने के बाद भी हम थोड़ा संसार में रुक सकते हैं। उसके बाद ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का क्षय होता है जिससे केवलज्ञान होता है। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय - मोह के दो भेद होते हैं। दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियाँ- मिथ्यात्व, सम्यक् और सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार कषाय - कुल सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन रूप क्षायिक भाव प्राप्त होता है। और मोक्ष fix हो जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन से पहले बहुत पुरुषार्थ करना होता है हो जाता है, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन असंख्यातों बार होकर छूट सकता है। लेकिन एक बार उपशम सम्यग्दर्शन हो जाने पर अर्धपुद्गल परिवर्तन काल की limit बन जाती है। उपशम सम्यक दर्शन जो होता तो अनन्त काल की तरह ही है। सबसे कम काल क्षायिक सम्यग्दर्शन के बाद रहता है। या तो उसी भव में या तीसरे भव में मोक्ष निश्चित होता है। क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव ही इन सात प्रकृतियों का क्षय कर सकता है। चौथे गुणस्थान वाला अविरत सम्यग्दृष्टि, पाँचवें गुणस्थान वाला देशसंयमी और छठवें या सातवें गुणस्थान वाले प्रमत्त-अप्रमत्त मुनि क्षायिक सम्यकत्व की प्राप्ति कर सकते हैं। Tattwarthsutra Website: https://ttv.arham.yoga/