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जिला कुल्लू में अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव में सभी देवताओं की अपनी-अपनी भूमिकाएं हैं। आज हम बात करने वाले हैं उन छह देवी-देवताओं की जिनकी इस दशहरा उत्सव में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रहती है और जिनके बिना दशहरा ही आरंभ करना मुश्किल है। माता हिडिम्बा- ये राजपरिवार की दादी भी कहलाई जाती है। कहते हैं कि कुल्लू के राजा को यहां का राजपाठ माता हिहिम्बा ने ही दिलाया था। इसी कारण माता को यह पदवी मिली है। बाद में जब कुल्लू दशहरा को आरंभ करने की योजना बनी तो माता के आदेशों द्वारा ही इसका आगाज हुआ और आज भी यह परंपरा चली हुई है। दशहरा उत्सव में जब तक माता कुल्लू नहीं पहुंचती, तब तक उत्सव का आगाज ही नहीं होता है। माता का रथ जब कुल्लू मुख्यालय में पहुंचता है तो यहां पर इसका राजपरिवार द्वारा विशेष स्वागत किया जाता है। इसके बाद रघुनाथपुर दरबार में भगवान रघुनाथ जी को उत्सव के लिए ढालपुर लाने की प्रक्रिया आरंभ होती है। लंका दहन के दिन भी माता के ही आदेशों से लंका दहन की प्रक्रिया पूरी होती है और इसे पूरा करने के बाद ही माता अपने देवालय को वापिस लौटती है। देवता बिजली महादेव -कुल्लू जनपद में भगवान रघुनाथ जी के आने से पहले भगवान शिव की पूजा अराधना मुख्य रूप से होती थी और यहां पर शैव मत का ही प्रचलन था। बाद में कुल्लू के राजा पर जब आफत आई तो उसके निवारण के लिए 1650 में रघुनाथ जी की मूर्ति अयोध्या से लाई गई। यह मूर्ति पहले कुल्लू जिला के मकराहड़, मणिकर्ण और नग्गर में स्थापित की गई। इसके बाद 1660 में इसे सुल्तानपुर में स्थापित करने की योजना बनी तो बिजली महादेव जी ने यहां पर अपने स्थान के पास इसे स्थापित करने की अनुमति दी थी। इसी कारण से दशहरा उत्सव में भी बिजली महादेव का विशेष स्थान व सम्मान होता है। उत्सव का सांकेतिक आगाज नवरात्रों के साथ होता है और इसे बिजली महादेव जी द्वारा किया जाता है। कुल्लू दशहरा के लिए बिजली महादेव जी आज भी जब आते हैं तो अपने स्थान पर सबसे पहले जाते हैं और विश्राम करते हैं। उत्सव के समाप्त होने पर राजपरिवार को आशिर्वाद देकर अपने मुख्य देवालय को वापिस लौटते हैं। माता भुवनेश्वरी अर्थात भेखली माता -यह भी कुल्लू के राजपरिवार की इष्ठ देवियों में एक मानी जाती है। दशहरा उत्सव की पहले दिन जब रथयात्रा आरंभ होती है तो वह इसी देवी के आदेशों के उपरांत आरंभ होती है। जिला मुख्यालय के साथ पहाड़ी पर स्थित माता के मंदिर से देवादेश होता है और माता के कारकून मंदिर के साथ लगते स्थान से लाल झंडे हिलाकर संकेत करते हैं तो उसके बाद रघुनाथ जी का रथ आगे हिलता है। इसके अलावा मोहल्ला पर्व पर माता के दरबार से रघुनाथ जी को पुजारी के जरिए एक कटोरी में तिलक और फूल भेजे जाते हैं, तो वापसी पर उसी कटोरी को माता सीता के वस्त्र पहना कर रघुनाथ जी दरबार से वापिस भेजा जाता है। कुल्लू दशहरा में माता के रथ के न आने के बारे में कहा जाता है कि यह माता धूप में बाहर नहीं निकलती है, मान्यता है कि एक बार सूर्यदेव से युद्ध के कारण इनके चरणों में चोट आई थी, और इसी कारण यह सूर्य को देखना पसंद नहीं करती। इसी के चलते माता का रथ उत्सव में नहीं आता है, लेकिन फिर भी माता की दशहरा में भूमिका अहम है। हालांकि एक बार माता के रथ को उत्सव में लाने की कोशिश भी राज परिवार द्वारा की गई थी लेकिन यह कामयाब नहीं हो पाई। इसके बाद अब चर्चा करते उस माता की जो दशहरा उत्सव की लंका दहन प्रक्रिया के लिए भगवान रघुनाथ जी को माता त्रिपुरा सुंदरी - माता त्रिपुरा सुंदरी नग्गर क्षेत्र की एक देवी है और यह राजपरिवार की कुलदेवियों में शामिल है। कहते हैं कि दशहरा उत्सव के लिए देवी-देवताओं को बुलाने का आदेश माता द्वारा ही दिया जाता है। इसे देव परिषद की अध्यक्ष देवी की कहा जाता है। मोहल्ला पर्व पर सबसे पहले माता रघुनाथ जी के दरबार में पहुंचती है और लंका विजय के लिए रघुनाथ जी को अपनी शक्तियां प्रदान करती है तो साथ ही कुल्लू के राजपरिवार को भी अपना आशीर्वाद इसके लिए देती है। त्रियुगी नारायण - यह कुल्लू के राज परिवार के अराध्य देवता है और यह इस परिवार के मार्गदर्शक देवता कहलाए जाते हैं। कहा जाता है कि भगवान रघुनाथ के दरबार में या राजपरिवार पर जब भी कोई संकट आता है तो राजपरिवार दियार में देवता के दरबार में पहुंचकर हाजरी लगाता है तो यहीं पर इसका समाधान निकलता है। इस पदवी के कारण इन्हे राजपरिवार द्वारा राजा के बेहड़े के भीतर ही स्थान भी दिया गया है। दशहरा उत्सव या राजपरिवार पर आए हर संकट से बाहर निकले का मार्गदर्शन यहीं पर आज तक मिलता रहा है। कहा जाता है कि साल 1971 में जब गोली कांड दशहरा उत्सव में हुआ था तो रघुनाथ जी दरबार और दशहरा उत्सव समिति में ठन गई थी, उस दौरान उत्सव समिति ने रघुनाथ जी के स्थान पर त्रियुगी नारायण जी की रथयात्रा करवाने का प्लान बना दिया था, लेकिन त्रियुगी नारायण जी ने उस दौरान भी न केवल इस ऑफर को सिरे से खारिज किया बल्कि इस विवाद को भी सुलझाया था जिसके बाद उत्सव फिर से सामान्य तरीके से आरंभ हुआ। जमलू महाराज-यह वही देवता है जब दशहरा उत्सव में भगवान रघुनाथ जी का बड़ा रथ बनाने के लिए लकड़ी की जरूरत पड़ी थी तो इन्होने अपने जंगल से इसे देने की अनुमति दी थी। आज भी रघुनाथ जी के लिए को इनके जंगल की ही लकड़ी से तैयार किया जाता है। 1971 में दशहरा की जलेब के रास्ते पर विवाद हुआ, गोलियां चली और उत्सव पर ग्रहण लग गया। ऐसे में कई देवताओं ने उत्सव में आना ही बंद किया था। लेकिन इस चुनौतीपूर्ण दौर में देवता जमलू पीज ने उत्सव की परंपराओं को निभाने में रघुनाथ जी का साथ दिया। भगवान नरसिंह जी की शाही जलेब में देवताओं ने डर के कारण हिस्सा लेना बंद कर दिया तो तब भी जमलू महाराज इकलौते देवता थे जो इस परंपरा को जीवित रखने के लिए चट्टान की भांति खड़े हुए थे। आज भी इसका अहसान राजपरिवार चुकाता है और उत्सव भगवान नरसिंह जी की शाही जलेब जब भी निकलती है तो इसका पहला निमंत्रण पीज के जमलू को ही मिलता है।