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#jaintirth #jainism काशी: जैन संस्कृति का अमर केन्द्र बनारस, जिसे प्राचीन काल से काशी के नाम से जाना जाता है, भारतीय संस्कृति का एक अद्वितीय केन्द्र रहा है, बल्कि जैन संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण गढ़ रहा है। जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर माने जाते हैं, और उनमें से चार तीर्थंकरों – सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभु, श्रेयांसनाथ और पार्श्वनाथ – का जन्म काशी की पावन भूमि पर हुआ। काशी: जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि सुपार्श्वनाथ (सातवें तीर्थंकर) – इनका जन्म काशी के भदैनी क्षेत्र में हुआ था, जहाँ आज एक भव्य जैन मंदिर स्थित है। चंद्रप्रभु (आठवें तीर्थंकर) – इनका जन्म चंद्रावटी में हुआ, जो उस समय काशी राज्य का ही हिस्सा था। श्रेयांसनाथ (ग्यारहवें तीर्थंकर) – इनका जन्म सारनाथ में हुआ, जो कि जैन संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। पार्श्वनाथ (तेइसवें तीर्थंकर) – इनका जन्म भेलूपुर क्षेत्र में हुआ, और यह जैन धर्म के इतिहास में एक क्रांतिकारी घटना थी। पार्श्वनाथ का काल ऐतिहासिक रूप से भी प्रमाणित है और लगभग 2800 वर्ष पूर्व बनारस जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था। जैन संस्कृति की समृद्धि और काशी का योगदान बनारस न केवल तीर्थंकरों की जन्मभूमि रहा, बल्कि यहाँ अनेक जैन आचार्य भी हुए, जिन्होंने जैन धर्म और दर्शन को नई ऊँचाइयाँ दीं। इनमें से कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं: आचार्य समंति भद्र – प्रसिद्ध दार्शनिक और न्यायविद जिन्होंने रत्नकरण्ड श्रावकाचार और युक्त्यनुशासन की रचना की। बनारसीदास – इन्होंने हिंदी साहित्य की पहली आत्मकथा 'अर्धकथानक' लिखी। आचार्य यशोविजय – 16वीं-17वीं शताब्दी के महान जैन विद्वान, जिन्होंने जैन दर्शन पर अनेक ग्रंथ लिखे। पं. गणेशप्रसाद वर्णी – जैन धर्म के एक महान संत जिन्होंने वाराणसी में जैन विद्या को पुनर्जीवित किया। काशी: जैन शिक्षा और साहित्य का केन्द्र काशी में जैन शिक्षा और साहित्य का प्रभाव अनादि काल से रहा है। यहाँ भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना हुई, जहाँ अनेक जैन ग्रंथों का संकलन और प्रकाशन हुआ। 'स्याद्वाद विद्यालय' और 'गणेश वर्णी शोध संस्थान' जैसे संस्थानों ने जैन शिक्षा को बढ़ावा दिया। जैन संस्कृति और वाराणसी का अद्वितीय संबंध आज भी वाराणसी में पार्श्वनाथ मंदिर, सुपार्श्वनाथ मंदिर, सारनाथ जैन मंदिर और अन्य कई प्राचीन जैन मंदिर इस बात के साक्षी हैं कि यह नगरी जैन धर्म की एक प्रमुख स्थली रही है। यहाँ के घाटों, गलियों और मंदिरों में जैन संस्कृति की अमिट छाप देखी जा सकती है। काशी और जैन संस्कृति का यह संबंध अटूट है, और यह नगरी अनंत काल तक जैन धर्म और उसके दर्शन का प्रचार करती रहेगी।