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विश्व गुरु की उपमा से उपमित भारत प्रारम्भ से ही महापुरुषों का देश रहा है। प्रत्येक युग में किसी न किसी महापुरुष का अवतरण होता है और वे विरल आत्माएँ संसार की असारता को जानकर निरंजन-निराकार स्वरूप बनने के लिये प्रभु महावीर के शासन में प्रव्रजित होकर आत्मा से महात्मा, महात्मा से परमात्मा बनने के लिये प्रयत्नशील रहती हैं। ऐसी ही एक पुण्यात्मा आज से लगभग 69 वर्ष पूर्व राजस्थान के बीकानेर जिले के प्रसिद्ध गाँव देशनोक में माता गवरादेवी की कोख से अवतरित हुई, जिसने पिता नेमि के कुल को उज्ज्वल किया। भगवान महावीर और गौतम बुद्ध की माताओं ने अद्भुत अपूर्व स्वप्न देखे थे। ऐसे ही माता गवराबाई ने अर्द्धरात्रि में एक शुभ स्वप्न देखा कि किसी अदृश्य शक्ति ने उनकी गोद में एक दीप्तिमंत बालक को लाकर रख दिया। नौ माह बाद जिस बालक का जन्म हुआ वह पहले जयचंद बाद में रामलाल बना। उसके बाद साधुमार्गी परम्परा के हुक्मगच्छ का नौवां पट्टनायक बनकर आचार्य श्री रामलालजी म.सा. अथवा रामेश के रूप में धर्म प्रभावना के पुनीत कार्य में संलग्न हैं। बाल्यकाल में बालक जयचन्द प्रायः व्याधियों से ग्रस्त रहता था। कालान्तर में बाबा रामदेव के नाम पर उसे रामलाल कहा जाने लगा। समय के पाबन्द और धुन के पक्के राम की शुरू से ही धर्म में अपार श्रद्धा थी। देशनोक में जब श्री सत्येन्द्रमुनि का चातुर्मास चल रहा था तब सात वर्ष की अल्पवय में बालक राम ने प्रवचन-सत्संग का पूरा लाभ उठाया तथा उस समय प्याज, लहसुन जैसे तामस प्रवृत्ति के खाद्यों के त्याग कर दिया। एक दिन अनाथीमुनि की पुस्तक पढते-पढते ही जीवन की दिशा बदल गई। अनाथीमुनि का रोग धर्म शक्ति से ठीक हुआ। राम ने भी संकल्प लिया कि यदि मेरा चर्म रोग दो साल में ठीक हो गया तो मैं साधु बन जाऊँगा। संकल्प महान् है। यही हुआ, आपका चर्म रोग ठीक हो गया। आपने दीक्षा लेने का निर्णय ले लिया। लगभग 20 वर्ष की अल्पायु में पितृ वियोग हुआ। औपचारिकता पूर्ण कर राम ने जयपुर स्थित लाल भवन में आचार्य श्री नानेश के प्रथम दर्शन किये। आचार्यश्री के दर्शन के बाद आप में वैराग्य का रंग और भी तीव्रता से गहराने लगा। आप आचार्यश्री के सानिध्य में रहने लगे। आपका वैराग्य उतारने के लिये अभिभावकों के सभी प्रयास विफल रहे। आपने अनेक छोटे-बडे नियम ग्रहण कर लिये जैसे- सचित्त पानी नहीं पीना, चप्पल-जूते नहीं पहनना, चौविहार करना, जमीकन्द नहीं खाना आदि। सभी प्रत्याख्यानों का पालन आप दृढ़ता से करने लगे। संघ की सुश्राविका उमरावबाई मूथा ने आपके वैराग्य की परीक्षा ली, जिसमें आप खरे उतरे। आपके वैराग्यकाल की सबसे कठिन परीक्षा डूंगरगढ़ एवं नापासर के बीच रेत के धोरों पर चिलचिलाती धूप में खडा रहने की थी। आप वैराग्य अवस्था में साधु समान वस्त्र पहनते थे। आपका वैराग्य जीवन अपने आप में अनोखा था।