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भारतीय संवत्सर कालगणना की वैज्ञानिकता 2 years ago

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भारतीय संवत्सर कालगणना की वैज्ञानिकता

संवत्सर कालगणना वैज्ञानिक और खगोल शुद्ध भारतीय संवत्सर वैदिक ऋषियों की संसार को अनुपम देन है। संवत्सर सूर्य और चन्द्रमा दोनों की युगपत् गति पर निर्मित है जो सार्वभौमिक सन्दर्भ प्रस्तुत करता है। भारतीय तिथियों की उत्पत्ति और समाप्ति विश्व के हर स्थान और समय में एक जैसी रहती है, बदलती नहीं है जबकि अन्य केलेण्डर में त्योहार और पर्वों की तिथियों में स्थान और समय भेद प्रायः देखा जाता है। भारतीय महिनों के नाम नक्षत्रों की पूर्णिमा पर आधारित हैं जबकि ईस्वी सन् के जुलाई और अगस्त के नाम के पीछे रोमन सम्राटों के नाम जुडे हुए हैं। मान्यता है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन से ही सतयुग प्रारम्भ हुआ था इसलिए शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नववर्ष प्रारंभ होता है। विश्व में प्रचलित विविध काल गणनाओं में भारतीय तिथियाँ ही सार्वभौमिक सन्दर्भ योग्य दिन और क्रम प्रदान करती हैं। इन तिथियों का आरम्भ और समापन धरती के सभी स्थानों पर एक साथ होता है। जबकि अंग्रेजी तारीखें मध्य रात्रि से बदलती हैं और मध्य रात्रि का समय भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग होता है जिसमें 24 घण्टे तक का अंतर आ जाता है। भारत और अमेरिका में तो साढ़े बारह घण्टे तक का अंतर रहता है। किन्तु भारतीय तिथियों में परिवर्तन पूरी धरती पर एक ही समय में होता है। व्यावहारिक तौर यद्यपि ईस्वी केलेंडर ही वैश्विक समयचक्र का निर्धारण करता है किन्तु सार्वभौमिक सन्दर्भ देने में सक्षम नहीं है।  नव संवत्सर २०८० का आरम्भ 21 मार्च को रात्रि में 10: 55 बजे हो रहा है। उसी समय अमावस्या समाप्त हो कर प्रतिपदा तिथि का उदय हो रहा है। इस समय धरती पर चाहे कहीं रात हो या दिन, सुबह हो या शाम, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा सभी स्थानों पर एक साथ प्रारम्भ होगी। उसी दिन को वर्ष प्रतिपदा और नवरात्रि का प्रारम्भ माना जायेगा। दूसरी ओर यदि अंग्रेजी तारीख ‘22 मार्च’ के प्रारम्भ को सन्दर्भित किया जाये तो विभिन्न देशों में समय का संदर्भ अलग-अलग आएगा जो उलझन भरा है। भारतीय तिथियाँ सूर्य और चन्द्रमा के बीच प्रति 12 डिग्री की कोणीय दूरी बढ़ने या घटने पर एक-एक कर बदलती हैं। पृथ्वी पर कहीं से भी चन्द्रमा व सूर्य के बीच की कोणीय या चापीय दूरी नापी जाये, वह एक समान ही होती है। इसलिये सम्पूर्ण भूमण्डल पर प्रत्येक हिन्दू तिथि एक साथ अथवा एक ही समय परिवर्तित होती है। दूसरी ओर चंद्रोदय में स्थान भेद से एक दिन तक का अन्तर होने से दुनिया के अन्य केलेण्डर में विविध स्थानों की तिथियों, पर्वों और त्योहारों में एक दिन तक का अन्तर आ जाता है। अमावस्या को सूर्य व चन्द्रमा एक ही रेखांश पर होते हैं। वहाँ से उनके बीच कोणीय अन्तर 12* डिग्री होने तक शुक्ल प्रतिपदा रहती है। 12 से 24* का अन्तर होने तक द्वितीया, 24 से 36* की कोणीय दूरी होने तक तृतीया और इसी प्रकार 168 -180* के बीच पूर्णिमा तथा उसके बाद 180 -192* तक कृष्ण प्रतिपदा होती है। भारतीय काल गणना में महिनों का नामकरण वर्ष में आने वाली 12 पूर्णिमाओं के नक्षत्रों को ध्यान में रखकर किया गया है। चित्रा नक्षत्र में पूर्णिमा वाले मास का नामकरण चैत्र, विशाखा का वैशाख, ज्येष्ठ का ज्येष्ठ, उत्तराषाढ़ा का आषाढ़, श्रवण का श्रावण, अश्विनी का आश्विन और इसी प्रकार फाल्गुन पर्यन्त बारह महिनों के नाम उन महिनों की पूर्णिमा के नक्षत्र के अनुसार निर्धारित किये गये हैं। सौर महिनों से चंद्र महीनों का सन्तुलन करने के साथ-साथ करोड़ों वर्ष बाद भी चंद्र महिनों का ऋतु चक्र से पृथक्करण नहीं हो जाये, इस हेतु भारतीय ऋषियों ने  संक्रांति रहित मास को अधिकमास की संज्ञा देकर प्रति तीन वर्ष में एक अधिक मास का प्रावधान कर दिया। इससे हमारे सभी पर्वों, त्योहारों और वर्षों का प्रारम्भ करोड़ों वर्षों से सदैव उसी ऋतु में होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। पुराणों में यह वर्णन आता है कि सूर्य एक महासूर्य की परिक्रमा 49 हजार योजन प्रति-घटी की गति से कर रहा है। आधुनिक खगोलवेत्ताओं के अनुसार सूर्य हमारी आकाश गंगा में एक अति शक्तिशाली कृष्ण विवर (ब्लैक होल) की लगभग 7.45 लाख किमी. प्रति घंटा की गति से परिक्रमा कर रहा है और 21 करोड़ 60 लाख वर्ष में वह उसकी एक परिक्रमा पूरी करता है। इतनी अवधि में 50 चतुर्युगियां बीत जाती हैं। पौराणिक काल गणनाओं के अनुसार 43.20 लाख वर्ष में एक चतुर्युगी पूरी होती है, जिसमें 4.32 लाख वर्ष का कलयुग, 8.64 लाख वर्ष का द्वापर, 12.96 लाख वर्ष का त्रेता और 17.28 लाख वर्ष का सतयुग होता है। इस क्रम में हमारी आकाश गंगा की वर्तमान सृष्टि से युक्त 196,58,85, 115वां वर्ष पूर्ण हो गया है। पुराणों के अनुसार जो आकाशगंगा अर्थात तारा मंडल हमें दिखायी देता है वैसे असंख्य तारा मंडल या आकाशगंगायें अनंत ब्रह्माण्ड में विस्तीर्ण हैं।                                                         डॉ. राजेश जोशी सह आचार्य, संस्कृत

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