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हिन्दू विधि के अनुसार दाय की दो पद्धतियाँ है - [१] -मिताक्षरा पद्धति [२] -दायभाग पद्धति दायभाग पद्धति बंगाल तथा आसाम में प्रचलित हैं और मिताक्षरा पद्धति भारत के अन्य प्रांतों में .मिताक्षरा विधि में संपत्ति का न्यागमन उत्तरजीविता व् उत्तराधिकार से होता है और दायभाग में उत्तराधिकार से . उत्तराधिकार और उत्तरजीविता :- उत्तराधिकार में किसी व्यक्ति को संपत्ति में उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद ही स्वामित्व प्राप्त होत है। उस व्यक्ति की मृत्यु से पहले उसकी संपत्ति में किसी को कोई हक प्राप्त नही होता। उत्तरजीविता में उत्तरजीवी को गत स्वामी की मृत्यु के पहले ही हक प्राप्त हो जाता है। गत स्वामी की मृत्यु से उसके हक मेंअभिवृद्धि हो जाती है, न कि उसका कोई नया हक उत्पन्न हो जाता है। मिताक्षरा और दायभाग के बीच मुख्य भेद मिताक्षरा और दायभाग के बीच मुख्य मुख्य बातों का भेद नीचे दिखाया जाता हैः (१) मिताक्षरा के अनुसार पैतृक (पूर्वजों के) धन पर पुत्रादि का सामान्य स्वत्व उनके जन्म ही के साथ उत्पन्न हो जाता है, पर दायभाग पूर्वस्वामी के मृत्यु के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है। (२) मिताक्षरा के अनुसार बंटवारे के पहले प्रत्येक सम्मिलित प्राणी (पिता, पुत्र, पौत्र इत्यादि) का सामान्य स्वत्व सारी संपत्ति पर होता है, चाहे वह अंश बाँट न होने के कारण अव्यक्त या अनिश्चित हो। (३) मिताक्षरा के अनुसार कोई हिस्सेदार कुटुंब संपत्ति को अपने निज के काम के लिये बेच या रेहन नहीं कर सकता पर दायभाग के अनुसार वह अपने अनिश्चित अंश को बँटवारे के पहले भी बेच सकता है। (४) दायभाग विधि में दाय प्राप्त करने का मुख्य आधार पारलौकिक हिट ही है, परन्तु मिताक्षरा विधि में रक्त संबंध दाय प्राप्त करने का आधार मानी गयी है। (५) मिताक्षरा के अनुसार पुत्र पिता से पैतृक संपत्ति बंटवारे लिये कह सकता है, पर दायभगा के अनुसार पुत्र को ऐसा अधिकार नहीं है। (६) मिताक्षरा के अनुसार स्त्री अपने मृत पति की उत्तराधिकारिणी तभी हो सकती है जब उसका पति भाई आदि कुटुंबियों से अलग हो। पर दायभाग में, चाहे पति अलग हो या शामिल, स्त्री उत्तराधिकारिणी होती है। (७) दायभाग के अनुसार कन्या यदि विधवा, वंध्या या अपुत्रवती हो तो वह उत्तराधिकारिणी नहीं हो सकती। मिताक्षरा में ऐसा प्रतिबंध नहीं है। याज्ञवल्क्य, नारद आदि के अनुसार पैतृक धन का विभाग इन अवसरों पर होना चाहिए— पिता जब चाहे तब, माता की रजोनिवृत्ति और पिता की विषयनिवृति होने पर, पिता के मृत, पतित या संन्यासी होने पर। सहदायिकी क्या है ? सर्वप्रथम हम यह देखते हैं कोपार्सनरी या सहदायिकी क्या है ? एक पिता, पुत्र व पौत्र या पोता मिलकर किसी संयुक्त हिन्दू परिवार में एक सहदायिकी या कोपार्सनरी बनाते हैं। सहदायिकी किसी संयुक्त हिन्दू परिवार की एक छोटी इकाई कही जा सकती है जो उक्त तीन पीढि़यों से मिलकर बनती है। धारा 6 में हुए उक्त संशोधन के पूर्व यह स्थिति थी लेकिन धारा 6 में हुए संशोधन के बाद सहदायिकी में पुत्री को भी शामिल किया गया है अतः वर्ष 2005 के संशोधन के बाद पिता, पुत्र, पुत्री व पौत्र या पोता मिलकर सहदायिकी बनाते है लेकिन पुत्री का पुत्र या नाती सहदायिक नहीं होता है। वर्ष 2005 के बाद पुत्रियों को भी सहदायिक सम्पत्ति में पुत्र के समान हक होता है संशोधन के पूर्व पुत्रियां स्वतंत्र रूप से विभाजन की मांग नहीं कर सकती थी केवल पिता और भाइयों के बीच बंटवारा होने पर उन्हें एक हिस्सा मिलता था और वह भी बहुत थोड़ा सा होता था वर्ष 2005 के संशोधन के बाद पुत्रियां न केवल स्वतंत्र रूप से विभाजन की मांग कर सकती है बल्कि उन्हें पुत्र के समान बराबर हिस्सा सम्पत्ति में मिलता है। सहदायिकी के मुख्य लक्षण (1) सहदायिकी सम्पत्ति में प्रत्येक सहदायिक का सम्पत्ति में जन्म से अधिकार होता है। (2) सभी सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में सहस्वामित्व होता है और सभी सहदायिक का सम्पत्ति पर समान रूप से कब्जा माना जाता है। (3) जब तक सहदायिकी सम्पत्ति का बंटवारा नहीं हो जाता है तब तक प्रत्येक सहदायिक का सम्पत्ति में संयुक्त हक रहता है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि किस सहदायिक का सम्पत्ति में कितना हिस्सा है क्योंकि किसी सहदायिक की मृत्यु होने पर या किसी नए सहदायिक के जन्म ले लेने पर हिस्सा घटता-बढ़ता रहता है। (4) सहदायिक की मृत्यु होने पर यदि उसकी कोई वैध प्रतिनिधि न हो तो सहदायिक सम्पत्ति में उसका हित समाप्त हो जाता है और सहदायिकी सम्पत्ति में विलीन हो जाता है। (5) सहदायिकी के सदस्य बंटवारे की मांग करके सहदायिकी सम्पत्ति में से अपना हक अलग करा सकते हैं। (6) वैधानिक आवश्यकता होने पर सभी सहदायिकी की सहमति से सम्पत्ति बेची जा सकती है। (7) उत्तरजीविता का सिद्धांत ऐसी सम्पत्ति के संबंध में लागू होता है। इस प्रकार 2005 में धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में हुए संशोधन के बाद पुत्रियों को पुत्र के समान सहदायिक सम्पत्ति में समान हक दिया गया है और वे सहदायिक सम्पत्ति में स्वतंत्र रूप से विभाजन की मांग भी कर सकती है लेकिन 20/12/2004 के पूर्व पंजीकृत विलेख से या न्यायालय के माध्यम से हो चुके विभाजन पर यह प्रावधान लागू नहीं होता है। अब महिलायें धारा 23 के विलुप्त हो जाने के बाद निवास गृह में भी विभाजन मांग सकती है, ऋण अदा करने का पवित्र कत्र्तव्य की स्थिति विलुप्त हो चुकी है। धारा 6 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम भूतलक्षी नहीं है सहदायिक सम्पत्ति के बारे में जन्म से अधिकार का सिद्धांत लागू होता है लेकिन पिता यदि विभाजन करवाकर पृथक अंश ले चुका होता है तब पिता के जीवनकाल में पुत्र को विभाजन मांगने का अधिकार नहीं होता है उक्त वैधानिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रकरण का निराकरण करना चाहिए।