У нас вы можете посмотреть бесплатно साकेत नवम सर्ग भाग एक (Saket Navam Sarg Part One) или скачать в максимальном доступном качестве, видео которое было загружено на ютуб. Для загрузки выберите вариант из формы ниже:
Если кнопки скачивания не
загрузились
НАЖМИТЕ ЗДЕСЬ или обновите страницу
Если возникают проблемы со скачиванием видео, пожалуйста напишите в поддержку по адресу внизу
страницы.
Спасибо за использование сервиса ClipSaver.ru
साकेत के नवम सर्ग की व्याख्या का प्रथम भाग दो वंशों में प्रकट करके पावनी लोक-लीला, सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियाँ पूतशीला; त्यागी भी हैं शरण जिनके, जो अनासक्त गेही, राजा-योगी जय जनक वे पुण्यदेही, विदेही। विफल जीवन व्यर्थ बहा, बहा, सरस दो पद भी न हुए हहा! कठिन है कविते, तव-भूमि ही। पर यहाँ श्रम भी सुख-सा रहा। करुणे, क्यों रोती है? ’उत्तर’ में और अधिक तू रोई-- ’मेरी विभूति है जो, उसको ’भव-भूति’ क्यों कहे कोई?’ अवध को अपनाकर त्याग से, वन तपोवन-सा प्रभु ने किया। भरत ने उनके अनुराग से, भवन में वन का व्रत ले लिया! स्वामि-सहित सीता ने नन्दन माना सघन-गहन कानन भी, वन उर्मिला बधू ने किया उन्हीं के हितार्थ निज उपवन भी! अपने अतुलित कुल में प्रकट हुआ था कलंक जो काला, वह उस कुल-बाला ने अश्रु-सलिल से समस्त धो डाला। भूल अवधि-सुध प्रिय से कहती जगती हुई कभी--’आओ!’ किन्तु कभी सोती तो उठती वह चौंक बोल कर--’जाओ!’ मानस-मन्दिर में सती, पति की प्रतिमा थाप, जलती-सी उस विरह में, बनी आरती आप। आँखों में प्रिय-मूर्ति थी, भूले थे सब भोग, हुआ योग से भी अधिक उसका विषम-वियोग! आठ पहर चौंसठ घड़ी, स्वामी का ही ध्यान! छूट गया पीछे स्वयं, उसका आत्मज्ञान!! उस रुदन्ती विरहणी के रुदन-रस के लेप से, और पाकर ताप उसके प्रिय-विरह-विक्षेप से, वर्ण-वर्ण सदैव जिनके हों विभूषण कर्ण के, क्यों न बनते कविजनों के ताम्रपत्र सुवर्ण के? पहले आँखों में थे, मानस में कूद मग्न प्रिय अब थे, छींटे वही उड़े थे, बड़े बड़े अश्रु वे कब थे? उसे बहुत थी विरह के एक दण्ड की चोट, धन्य सखी देती रही निज यत्नों की ओट। सुदूर प्यारे पति का मिलाप था, वियोगिनी के वश का विलाप था। अपूर्व आलाप हुआ वही बड़ा, यथा विपंची--डिड़, डाड़, डा, डड़ा! "सींचें ही बस मालिनें, कलश लें, कोई न ले कर्तरी, शाखी फूल फलें यथेच्छ बढ़के, फैलें लताएँ हरी। क्रीड़ा-कानन-शैल यंत्र जल से संसिक्त होता रहे, मेरे जीवन का, चलो सखि, वहीं सोता भिगोता बहे। #mahindi #saket #maithisharangupt #hindisahitya #hindilectures