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क्या क्या होगा साथ, मैं क्या बताऊँ? है ही क्या, हा! आज जो मैं जताऊँ? तो भी तूली, पुस्तिका और वीणा, चौथी मैं हूँ, पाँचवीं तू प्रवीणा। हुआ एक दुःस्वप्न-सा सखि, कैसा उत्पात जगने पर भी वह बना वैसा ही दिनरात! खान-पान तो ठीक है, पर तदन्तर हाय! आवश्यक विश्राम जो उसका कौन उपाय? अरी व्यर्थ है व्यंजनों की बड़ाई, हटा थाल, तू क्यों इसे आप लाई? वही पाक है, जो बिना भूख भावे, बता किन्तु तू ही उसे कौन खावे? बनाती रसोई, सभी को खिलाती, इसी काम में आज मैं तृप्ति पाती। रहा किन्तु मेरे लिए एक रोना, खिलाऊँ किसे मैं अलोना-सलोना? वन की भेंट मिली है, एक नई वह जड़ी मुझे जीजी से, खाने पर सखि, जिसके गुड़ गोबर-सा लगे स्वयं ही जी से! रस हैं बहुत परन्तु सखि, विष है विषम प्रयोग, बिना प्रयोक्ता के हुए, यहाँ भोग भी रोग! लाई है क्षीर क्यों तू? हठ मत कर यों, मैं पियूँगी न आली, मैं हूँ क्या हाय! कोई शिशु सफलहठी, रंक भी राज्यशाली? माना तू ने मुझे है तरुण विरहिणी; वीर के साथ व्याहा, आँखो का नीर ही क्या कम फिर मुझको? चाहिए और क्या हा! चाहे फटा फटा हो, मेरा अम्बर अशून्य है आली, आकर किसी अनिल ने भला यहाँ धूलि तो डाली! धूलि-धूसर हैं तो क्या, यों तो मृन्मात्र गात्र भी; वस्त्र ये वल्कलों से तो हैं सुरम्य, सुपात्र भी! फटते हैं, मैले होते हैं, सभी वस्त्र व्यवहार से; किन्तु पहनते हैं क्या उनको हम सब इसी विचार से? पिऊँ ला, खाऊँ ला, सखि, पहनलूँ ला, सब करूँ; जिऊँ मैं जैसे हो, यह अवधि का अर्णव तरूँ। कहे जो, मानूँ सो, किस विध बता, धीरज धरूँ? अरी, कैसे भी तो पकड़ प्रिय के वे पद मरूँ। रोती हैं और दूनी निरख कर मुझे दीन-सी तीन सासें, होते हैं देवरश्री नत, हत बहनें छोड़ती हैं उसासें। आली, तू ही बता दे, इस विजन बिना मैं कहाँ आज जाऊँ? दीना, हीना, अधीना ठहर कर जहाँ शान्ति दूँ और पाऊँ? आई थी सखि, मैं यहाँ लेकर हर्षोच्छवास, जाऊँगी कैसे भला देकर यह निःश्वास? कहाँ जायँगे प्राण ये लेकर इतना ताप? प्रिय के फिरने पर इन्हें फिरना होगा आप। साल रही सखि, माँ की झाँकी वह चित्रकूट की मुझको, बोलीं जब वे मुझसे-- ’मिला न वन ही न गेह ही तुझको!’ जात तथा जमाता समान ही मान तात थे आये, पर निज राज्य न मँझली माता को वे प्रदान कर पाये! मिली मैं स्वामी से पर कह सकी क्या सँभल के? बहे आँसू होके सखि, सब उपालम्भ गल के। उन्हें हो आई जो निरख मुझको नीरव दया, उसी की पीड़ा का अनुभव मुझे हा! रह गया! न कुछ कह सकी अपनी न उन्हीं की पूछ मैं सकी भय से, अपने को भूले वे मेरी ही कह उठे सखेद हृदय से। मिथिला मेरा मूल है और अयोध्या फूल, चित्रकूट को क्या कहूँ, रह जाती हूँ भूल! सिद्ध-शिलाओं के आधार, ओ गौरव-गिरि, उच्च-उदार! तुझ पर ऊँचे उँचे झाड़, तने पत्रमय छत्र पहाड़! क्या अपूर्व है तेरी आड़, करते हैं बहु जीव विहार! ओ गौरव-गिरि, उच्च-उदार! घिर कर तेरे चारों ओर करते हैं घन क्या ही घोर। नाच नाच गाते हैं मोर, उठती है गहरी गुंजार, ओ गौरव-गिरि, उच्च-उदार! नहलाती है नभ की वृष्टि, अंग पोंछती आतप-सृष्टि, करता है शशि शीतल दृष्टि, देता है ऋतुपति शृंगार, ओ गौरव-गिरि, उच्च-उदार! तू निर्झर का डाल दुकूल, लेकर कन्द-मूल-फल-फूल, स्वागतार्थ सबके अनुकूल, खड़ा खोल दरियों के द्वार, ओ गौरव-गिरि, उच्च-उदार! सुदृढ़, धातुमय, उपलशरीर, अन्तःस्थल में निर्मल नीर, अटल-अचल तू धीर-गभीर, समशीतोष्ण, शान्तिसुखसार, ओ गौरव-गिरि, उच्च-उदार! विविध राग-रंजित, अभिराम, तू विराग-साधन, वन-धाम, कामद होकर आप अकाम, नमस्कार तुझको शत वार, ओ गौरव-गिरि, उच्च-उदार! #hindilectures #hindisahitya #college #saket