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🙏 जय जिनेन्द्र 🙏 भरत चक्रवर्ती — भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र, जैन परंपरा के पहले चक्रवर्ती सम्राट। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर धर्मपूर्वक राज्य किया, अपार वैभव पाया, और फिर राजपाट त्यागकर वैराग्य धारण किया। तप, ध्यान और संयम के बल पर उन्होंने केवलज्ञान (सर्वज्ञता) प्राप्त किया। लेकिन प्रश्न उठता है — जब भरत को मोक्ष मिला, तो वे तीर्थंकर क्यों नहीं बने? क्या यह कर्म का परिणाम था? या तीर्थंकर नामकर्म न बंधने का फल? इस एपिसोड में हम समझेंगे — Chapters — 00:00 - Intro भरत चक्रवर्ती: जीवन और परिचय [00:09] परिचय: जैन परंपरा के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत, जिनके नाम पर इस भूमि का नाम भारतवर्ष पड़ा। [01:18] जन्म और काल: भरत का जन्म वर्तमान अवसरपिणी काल की शुरुआत में, भोगभूमि की व्यवस्था खत्म होने और कर्मभूमि के आरंभ होने के संधि काल में हुआ था। [01:52] पिता और वंश: उनके पिता भगवान ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर) थे, जिन्होंने मानवता को 80 मसीह कृषि (कला, लिखना-पढ़ना, खेती) सिखाया। [02:20] सामाजिक व्यवस्था: समाज को चलाना और व्यवस्था बनाना भरत की व्यावहारिक जिम्मेदारी थी, जिससे आध्यात्मिक तरक्की का आधार बन सके। [02:42] भारतवर्ष का नामकरण: भरत की सार्वभौमिक सत्ता और उनके स्थापित किए गए धर्म राज्य की स्थाई निशानी के रूप में देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। [02:55] परिवार का योगदान: उनकी बहनें ब्राह्मी और सुंदरी, जिन्हें ब्राह्मी लिपि और अंक विद्या (गणित) का जनक माना जाता है। चक्रवर्ती का अर्थ और उनके 14 रत्न [03:16] चक्रवर्ती की परिभाषा: जैन शास्त्रों में चक्रवर्ती वह है जो भरत क्षेत्र के सभी छह खंडों पर पूरी संप्रभुता (संप्रभुता) स्थापित कर ले। [03:54] पद की प्राप्ति: चक्रवर्ती पद पिछले जन्मों में कमाए गए खास पुण्य कर्मों ('चक्रवर्ती नामकर्म') के उदय से मिलता है। [04:16] दैवीय साधन: चक्रवर्ती के जीवन में कई दैवीय शक्तियां और साधन होते हैं, जिनमें 14 रत्न शामिल हैं। [05:04] सात निर्जीव रत्न: चक्र, छत्र, दंड, अस (खड़ग), चर्म (ढाल), मणि और काकिणी। [05:46] सात सजीव रत्न: सेनापति, गृहपति, पुरोहित, स्त्री रत्न (मुख्य महारानी), गजरत्न, अश्वरत्न, और वर्ध की रत्न (वास्तुकार/इंजीनियर)। [06:30] चक्र रत्न का महत्व: यह संप्रभुता का निशान था, जो दिग्विजय अभियान में आगे-आगे चलता था और लक्ष्य को भेद कर ही वापस आता था। दिग्विजय और वर्ण व्यवस्था [07:13] दिग्विजय अभियान: भगवान ऋषभदेव के दीक्षा लेने के बाद भरत ने अयोध्या से दिग्विजय (विश्वविजय) अभियान शुरू किया। [07:43] छह खंडों पर शासन: चक्र रत्न के साथ उन्होंने चारों दिशाओं के राज्यों को अधीन कर छह खंडों पर शासन स्थापित किया। [08:11] ब्राह्मण वर्ण की स्थापना: उन्होंने समाज को नैतिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने के लिए ब्राह्मण नाम का चौथा वर्ण बनाया, जिसका काम अध्ययन-अध्यापन और धार्मिक अनुष्ठान था। भाई बाहुबली से संघर्ष [09:12] चक्र का रुकना: दिग्विजय से लौटने पर चक्र रत्न अयोध्या के मुख्य दरवाजे पर रुक गया, जिसका अर्थ था कि किसी ने अधीनता स्वीकार नहीं की है। [09:47] बाहुबली का इंकार: उनके छोटे भाई बाहुबली ने अपनी शारीरिक शक्ति (बाहुबल) के कारण भरत की अधीनता मानने से इंकार कर दिया। [10:17] द्वंद युद्ध: मंत्रियों की सलाह पर खूनखराबा रोकने के लिए तीन तरह के द्वंद युद्ध (दृष्टि युद्ध, जल युद्ध और मल्य युद्ध) तय हुए, जिनमें बाहुबली विजयी हुए। [11:10] चक्र का प्रहार: क्रोध में आकर भरत ने अमोग चक्र रत्न बाहुबली पर चलाया, लेकिन वह अपने नजदीकी रिश्तेदारों पर असर नहीं करता था और बाहुबली को कोई चोट नहीं पहुँचाई। [11:57] बाहुबली का वैराग्य: युद्ध जीतने के बाद भी बाहुबली को आत्मग्लानी हुई, और उन्होंने सब कुछ त्याग कर दिगंबर मुनि दीक्षा धारण कर ली। [12:45] आध्यात्मिक शक्ति की विजय: यह किस्सा बताता है कि आत्मिक शक्ति (तपस्या और वैराग्य) सांसारिक शक्ति (चक्रवर्ती पद) से कहीं ज्यादा बड़ी है। वैराग्य, केवल ज्ञान और मोक्ष [13:20] मारीचि: भरत के एक पुत्र मारीचि, जो कई जन्मों के बाद 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर बने थे। [14:12] निरर्थकता का बोध: दुनिया का सबसे बड़ा वैभव भोगने के बाद भरत को उसकी निरर्थकता और सीमा समझ में आ गई। [14:35] दिगंबर परंपरा के अनुसार वैराग्य: उन्होंने श्रृंगार करते समय अपने बालों में एक सफेद बाल देखा, जिससे उन्हें बुढ़ापे और दुनिया के झूठे होने का गहरा एहसास हुआ और उन्होंने तुरंत मुनि दीक्षा ले ली। [15:06] श्वेतांबर परंपरा के अनुसार वैराग्य: उन्होंने शीश महल (आर्सा भवन) में अपना प्रतिबिंब देखकर यह समझा कि यह शरीर और सुंदरता अस्थाई (अनित्य) है। [15:52] दिगंबर परंपरा में केवल ज्ञान: भरत ने दीक्षा लेने के बाद कठोर तपस्या करके सिर्फ एक अंतर्मुहूर्त (48 मिनट से कम समय) में केवल ज्ञान पा लिया। [16:20] श्वेतांबर परंपरा में केवल ज्ञान: माना जाता है कि भरत को केवल ज्ञान राजमहल में ही, राजसी वेश में रहते हुए ही हो गया था। [17:16] तीर्थंकर क्यों नहीं: भरत तीर्थंकर नहीं कहलाए क्योंकि उन्होंने पिछले जन्मों में धर्म तीर्थ चलाने के लिए जरूरी 'तीर्थंकर नाम कर्म' नहीं बांधा था; वे केवल 'सामान्य केवली' कहलाए। [17:58] निष्कर्ष: भरत का जीवन सांसारिक कर्तव्य (व्यवहार) और आध्यात्मिक लक्ष्य (निश्चय) के बीच संतुलन साधने और अंत में मोक्ष मार्ग को चुनने की कहानी है। जय जिनेन्द्र 🙏 Thank You 23:34 🎬 Script & Research: [rushabh jain] 🎧 Voice & Editing: Ai voice & Team Jinvani Shorts 📚 Sources: Adipurana, Uttarapurana, Trishashti Shalaka Purush Charitra All content in this video is original, created for spiritual and educational purposes.\ #Jainism #BharatChakravarti #JinvaniShorts #KevalGyan #Tirthankar #jainphilosophy